Sunday 12 April 2020

नयी महामारी से निपटान को नया नज़रिया

कोरोना वाइरस की महामारी ने सबकुछ ठप कराकर दुनिया के सामने अभूतपूर्व और विचित्र जटिलताएँ उत्पन्न कर दी हैं। इस महामारी के नियंत्रण के बाद दुनिया पहले जैसी नहीं रहेगी; आगे इसका स्वरूप कैसा होगा?—यह स्वाभाविक प्रश्न बहुतों के मन-मस्तिष्क में हिलोरें ले रहा है। इस महामारी के कुछ सकारात्मक लाभ हो रहे हैं। प्रदूषण काफी घटा है, प्रकृति को पुनः स्वस्थ होने का अभूतपूर्व मौका मिला है। लेकिन इसके चलते भारत सहित विश्व के समक्ष ऐसी जटिलताएं शुरू हुई हैं जिनके दूरगामी प्रभाव होने जा रहे हैं। एक ओर श्रमिकों की उपेक्षा और कठिनाइयाँ बढ़ी है, तो दूसरी ओर पूंजीवादी और पोंगापंथी वर्चस्व बढ़ा है। यह सारी बातें प्रकारांतर से इसी बात को पुनः रेखांकित करती हैं—भारत समेत विश्व की समस्याएँ सरकारों के बदलने से हल होने वाली नहीं हैं, व्यवस्था परिवर्तन करना होगा।  

आर्थिक संकट—गहराती मंदी
दुनिया के अर्थशास्त्रियों ने सन 2019 के आखिरी महीनों से ही मंदी की आशंका जतायी थी। कोरोना संकट इस मंदी को खाद-पानी दे रहा है। अब तो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) भी कह रहा है कि यह मंदी 1930 की महामंदी से अधिक विकराल होने जा रही है। यह विकसित और विकासशील दोनों ही तरह के राष्ट्रों को अपनी चपेट में ले रहा है। CMIE की 7 अप्रैल की रिपोर्ट है कि भारत में कुल बेरोजगारी 23.4 फीसदी हो गयी है जबकि शहरी बेरोजगारी 30.9 फीसदी। 
श्री प्रभात रंजन सरकार तथा भारतीय मूल के अमेरिकी प्रोफेसर रवि बत्रा के व्यवसाय चक्रों के  अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि सन् 2019-20 से आरम्भ यह महामन्दी छः वर्षों तक (सामाजिक, आर्थिक, मानसिक सभी क्षेत्रों में) चलेगी ही और फिर 2029-30 से 2036 तक स्फीति और महायुद्ध का काल होगा। इन उतार चढ़ावों की तीव्रता जितनी अधिक होगी आमजन के कष्ट और बर्बादी उतनी अधिक। इन उतार चढ़ावों को हल्का किया जा सकता है और इनकी विकरालता को काफी कम किया जा सकता है, लोकतांत्रिक, सार्वभौमिक, विज्ञान व नीतिपूर्ण समताकारी प्रवृत्तियों का विश्व सरकार के वास्तविक संयोजन से, जैसा कि प्रउत विचारधारा मानती है । अब तक चल रही वैश्विक व्यवस्था अप्रासंगिक होती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक जैसे इस व्यवस्था के पाये बहुत कमजोर साबित हुए हैं। ‘प्रउत’ है प्रगतिशील उपयोग तत्व [Progressive Utilization Theory(PROUT)], जो  पूंजीवाद और साम्यवाद के अतिवादी सनक से अलग वैश्विक दृष्टि तथा स्थानीय जन विकास की एक समन्वित विचार प्रणाली है।  

प्रवासी श्रमिकों का पलायन व श्रम सम्बन्धों का संकट
लाकडाऊन के साथ ही दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों से जिस तरह जीविका और मौलिक सुविधाओं से वंचित होने के तात्कालिक संकट तथा संभावित आशंका के चलते दिहाड़ी मजदूरों को जैसे, जिस हाल में भागना पड़ा, इससे सभी परिचित हैं। इस पलायन में केंद्र सरकार की कार्ययोजना, दिल्ली सरकार की कार्यविधि तथा फैक्ट्रियों व संस्थाओं के मालिकों की असमर्थता व असहयोग—सभी की भूमिका पर प्रश्नचिह्न तो लगे ही हैं, इससे इन दिहाड़ी मजदूरों में विश्वास का बड़ा संकट उत्पन्न हो गया। 16 मार्च से ही बड़ी संख्या में एकत्रित होने पर प्रतिबंध के बावजूद पुलिस स्टेशन की दीवाल से सटे मरकज़ निज़ामुद्दीन में 28 मार्च तक 200 से अधिक के एकत्रण ने तो इंटेलिजेंस और सरकारों व पुलिस के एक्शन और नोटिस-नोटिस के खेल पर ही सवाल खड़ा कर दिया।  सूरत के प्रवासी श्रमिक तो बदहाली से परेशान हो विद्रोह को ही विवश हो गए। ऐसे में इन श्रमिकों को काम पर वापस लौटने से पहले बहुत सोचना पड़ेगा । श्रमिकों के अभाव में इन फैक्ट्रियों व संस्थाओं को पुनः आरंभ करना एक बड़ी चुनौती है। यद्यपि मालिक लोग इन श्रमिकों को वापस बुलाने के लिए रोजगार एजेंटों का उपयोग का रहे हैं पर ये एजेन्ट इन श्रमिकों के पलायन के समय तो गायब ही थे, मदद या संभालने का प्रयास किए क्या! अभी से माना जा रहा है कि 40 करोड़ दिहाड़ी मजदूर बेकारी के चलते अत्यधिक गरीबी में गिरने जा रहे हैं। 

प्रउत का समाधान 
अब बिहार, यूपी, छत्तीसगढ़ आदि की सरकारें अपने ही राज्य में रोजगार के विकल्प ढूढ़ने को बाध्य हैं। पर यह दीर्घकालीन रणनीतिक प्रक्रिया है। प्रउत विचारधारा समझाती आ रही है कि प्रत्येक क्षेत्र में स्थानीय  संसाधनो के अनुरूप अधिक से अधिक उद्यम लगने चाहिए जिन्हें समन्वित सहकारी समितियों द्वारा चलाया जाय। समन्वित सहकारी समितियां प्रचलित सहकारी समितियों की तुलना में कहीं अधिक व सही अर्थों में जनवादी हैं। अधीनस्थ श्रमिकों व आमजन को इन समितियों में अंशधारक हितधारी के रूप में स्वामित्व दिया जाय। इससे श्रमिकों का पलायन कम होगा, रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और क्षेत्रीय विकास में समृद्धकारी संतुलन आयेगा। महानगरीय इलाकों का बोझ और सामाजिक विकृतियाँ भी घटेंगी।
प्रउत के अनुसार सभी मध्यम आकार के उत्पादक, निर्माणी, श्रम, उपभोक्ता आपूर्ति तथा व्यवसायिक इकाइयां तथा कृषि व कृषि संबंधी उद्योग समन्वित सहकारी समितियों द्वारा संचालित होंगी। अबतक सहकारी समितियां सरकारी विभागों के नियंत्रण में चलती रहीं हैं जिनमें सत्ताधारी राजनेता और नौकरशाह अपना प्रत्यक्ष या परोक्ष कब्जा बनाएँ रखते हैं, आम सदस्यों की बातें अनसुनी जाती हैं; नतीजा अकुशलता, घोटाला और घाटा। ऐसी अधीनस्थ सहकारी समितियां असफल होती रही हैं। सहकारी समितियों में सरकारों को  केवल ‘फ्रेंड, फिलासफर और गाइड’ की परोक्ष सकारात्मक भूमिका तक सीमित रहना चाहिए। श्रमिकों को सहकारी समिति से पारिश्रमिक के अलावा अंशधारक के तौर पर लाभांश भी मिलेगा, पूंजी/भूमि के अनुपात में ब्याज और किराए के अलावा। ठेके या कार्पोरेट खेती के बजाय समन्वित सहकारी खेती का विकल्प कम से कम छोटी जोतों के लिए उचित है। 
    इस महामारी काल में पूरी दुनिया में सार्वजनिक प्रतिष्ठानों की बहुत अच्छी भूमिका देखी गयी है। सभी बड़े उद्यम यथासंभव सरकारी/सार्वजनिक  नियंत्रण में चलाएं जाएँ। छोटे व्यवसाय निजी स्वामित्व में रखें। 
    रोजगार नीति यह है कि उचित विकेंद्रित नियोजन के द्वारा साधनों के उपयोग और आर्थिक क्रियाओं का स्तर हर क्षेत्र में ऊंचा करके शत-प्रतिशत रोजगार सुनिश्चित करना होगा। किसी भी क्षेत्र में किसी एक व्यवसाय पर अधिक निर्भर न करके प्रायः 30-40 प्रतिशत रोजगार कृषि में, 20% कृषि आधारित उद्यमों में, 20%  कृषि सहायक उद्यमों में, 10-20% गैर-कृषि उद्योगों में, 10% व्यापार-वाणिज्य में तथा 10% सफ़ेद-पोष क्रियाओं में रखना संतुलित अर्थव्यवस्था हेतु अपेक्षित है।
    कृषि उपज के मूल्य निर्धारण के मामले में इसे उद्योग की तरह ही देखना उचित है। लागत पर उचित लाभ तथा रिस्क प्रीमियम के साथ न्यूनतम मूल्य की गारंटी होनी चाहिए। कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों के बीच आय के अंतर को कम किया जाना आवश्यक है। स्थानीय स्तर पर कृषि आधारित उद्योगों की व्यवस्था कर पैदावार में विविधता लाने की जरूरत है।
    सभी के लिए पाँच न्यूनतम जरूरतों—भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा व चिकित्सा की उचित गारंटी करनी होगी—प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण, न्यूनतम आय तथा  रोजगार की प्रभावी गारंटी के द्वारा। केंद्रीकृत नियामक राजव्यवस्था एवं विकेंद्रित सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की नीति अपनाकर देश और दुनिया में अनुशासन और गति लानी होगी।  ये हैं प्रउत के आर्थिक नीति की मुख्य बातें।   
      
आर्थिक उत्पादन के वैश्विक धुरी में बदलाव—भारत के लिए अवसर या चुनौती
     चीन पिछले तीन दशकों से हर तरह के उपभोक्ता तथा निम्न प्रौद्योगिकी वस्तुओं के उत्पादन की वैश्विक धुरी बन गया था। इसे दुनिया का मैनुफक्चरिंग कैपिटल भी कहा गया है। हाल ही में दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ देश, इंडोनेशिया, मलएशिया, थाइलैंड आदि भी इसमें शामिल हो गए।  आज अमेरिका व यूरोप समेत पूरी दुनिया चीन से नाराज़ है। जापान आर्थिक दूरी की नीति के तौर पर वहाँ से अपना कारोबार समेट रहा है। भारत के लिए एक बड़ा अवसर है, आर्थिक धुरी के रूप में चीन का स्थान लेने का। यह अवसर तो भारत के पास पहले भी था, लेकिन हम इसका लाभ नहीं ले पाये। दुनिया का सकारात्मक मूड भारत को अवसर तो दे रहा है, पर हमें सही तैयारी शीघ्र करनी होगी, नहीं तो फिर चूकेंगे। मत भूलिए, ब्राजील, मेक्सिको, दक्षिण पूर्व एशिया और खुद यूरोप भी स्पर्धा में हैं।  भारत को अवसर तो मिला है, प्रसंशा भी खूब मिल रही है, पर थाली में मुकुट सज़ाकर मिलेगा, यह भ्रम पालने से नहीं चलेगा। 
हमें समझना होगा कि एक साम्यवादी देश होने के बावजूद चीन पूंजीवादी देशों की पसंद बना अपनी व्यस्थागत स्थिरता (राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक हर स्तर पर) और अनुशासन के चलते। भारत में व्यस्थागत स्थिरता और अनुशासन लाने के लिए बहुत आवश्यक है कि नोट और वोट की राजनीति के तहत पूंजीवाद की छिपी अर्चना, धार्मिक, सांप्रदायिक व जातीय ध्रुवीकरण, वर्चस्व की गला काट स्पर्धा  और ठकेदारी का खेल बंद हो। पर कैसे? साम्प्रदायिक और जातीय वर्चस्व की संकीर्ण भाव-प्रवणताओं (सेंटिमेंट्स) को जाति, पंथ या धर्म-निरपेक्षता की तटस्थ नीति से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। विज्ञानवाद, मानवता मूलक मानव धर्म, वैज्ञानिक अध्यात्म, वैश्विक भ्रातृत्व और एकेश्वरवाद को एकताकारी शक्ति (यूनिफाइङ्ग फोर्स) के तौर पर व्यापक धनात्मक नीति के रूप में देश के भीतर और बाहर ले के चलना होगा। इसके लिए आज भारत समेत पूरी दुनिया को इन्हीं तत्वों के समावेश के साथ सम्पूर्ण सांस्कृतिक क्रांति की आवश्यकता है। पर यह क्रांति माओ के चीनी वामपंथी क्रांति से सर्वथा भिन्न रहेगी। 
भारत यदि उत्पादन की वैश्विक धुरी का सामर्थ्य हासिल करने में सफल होता है तो इसकी विशाल युवा जनसंख्या को रोजगार व समृद्धि के  बड़े अवसर उपलब्ध हो जाएंगे। इस मुद्दे पर गंभीर चिंतन और प्रयास की आवश्यकता है। प्रउत अर्थ-दर्शन को अपनाने का बिलकुल अनुकूल समय है। 

नेतृत्व का संकट
व्यवस्था परिवर्तन की सबसे बड़ी चुनौती वैश्विक नेतृत्व को लेकर सामने आने जा रही है। अबतक तथाकथित लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में राजनीतिक दल संप्रदाय, जाति, नस्ल, पुरापंथ, भाषा, क्षेत्रादि संकीर्ण भावनाओं का उपयोग कर सत्ता हासिल तो लेते हैं पर अपनी घटिया नीतियों से समाज व मानवता की भारी क्षति करते रहे हैं और  साधनों की बरबादी। इस महामारी ने अमेरिका व चीन जैसे महाशक्तियों की असलियत खोल कर रख दी है। अनेक देश पूंजीवादी छल-प्रपंचों में फंसे हुए हैं तो कुछ देशों में साम्यवाद की आड़ में तानाशाही बादशाहत चलती रही है। दुनिया पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच झूलती रही है। इससे बाहर निकलना होगा। 
कोरोना वाइरस को लेकर चीन गहरे संदेह के घेरे में है—इस वाइरस की उत्पत्ति को लेकर, इसके प्रसार की सूचनाओं को छिपाने को लेकर तथा महामारी से गंभीर रूप से ग्रस्त देशों की मदद में भी घटिया आपूर्ति और मुनाफाखोरी को लेकर। संकटग्रस्त देशों की जनता गुस्से में है चीन की सरकार के खिलाफ। इस महामारी से इन देशों की पीड़ा जितनी बढ़ेगी, मौतें जितनी अधिक होंगी, इन देशों की जनता का बढ़ता गुस्सा इन सरकारों पर चीन से बदला लेने, क्षतिपूर्ति लेने तथा उसे ठीक करने का दबाव उतना ही अधिक बढ़ेगा। अमेरिका की प्रतिष्ठा को, उसकी प्रभुता को जबर्दस्त धक्का लगा। है। अमेरिका और इसके सहयोगी इसे आसानी से पचा नहीं पाएंगे। अब प्रमुख देशों के नेताओं के बीच कड़ा मुकाबला होने जा रहा है कि कोविड-19 के बाद के दौर में नई विश्व व्यवस्था का नेतृत्व कौन करेगा? 
हर क्षेत्र में महामंदी के निराशाजनक माहौल में नेतृत्व की चुनौती तो आनी है। बहिर्दबाव चालित नेतृत्व के स्थान पर वैज्ञानिक आध्यात्मिकता चालित (अंतरुद्भूत) नेतृत्व लाना उचित है। भारत में कुछ लोग रामराज्य का सुझाव देते हैं, पर यह सोच ठीक नहीं—रामराज्य ही क्यों, शिवराज्य क्यों नहीं, कृष्णराज्य क्यों नहीं, बुद्धराज्य ही क्यों नहीं?
शिवराज्य जिसमें सुर-असुर, आर्य-अनार्य का सुंदर समन्वय है इस आह्वान के साथ—('वसुधैव कुटुम्बकम' से भी आगे) 'हरमे पिता च गौरी माता, स्वदेशो भुवनत्रय'--ईश्वर को पिता और प्रकृति को मां समझो, तीनों लोक अपना  देश।; कृष्णराज्य, जिसमें भागवत धर्म के नाम से व्यापक मानवधर्म की प्रतिष्ठा है, वृहद विश्व का निर्देश है; और सम्यक जीवन शैली, समानता, विवेक और काफी हद तक वैज्ञानिकता पर चलने वाले यथार्थपूर्ण बुद्धराज्य तो इन सबसे अधिक विश्वसनीय है। परंतु इन सभी खंडदृष्टियों का उन्नत समन्वय है प्रउत-दर्शन जो विश्ववादी सोच, नैतिकवादी और कौशलपरक नेतृत्व पर केन्द्रित है। इस व्यव्स्था परिवर्तन हेतु  प्रउत-दर्शन को गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। अन्यथा चाहे जो भी पार्टी सत्ता में आ जाय, उसके नेता चाहे दुनिया भर की जितनी बड़ी-बड़ी बातें करें, स्थिति वही रहेगी।
प्रउत है तो सामाजिक-आर्थिक दर्शन लेकिन यह अध्यात्म, योग व तंत्र के वैज्ञानिक व युक्तिसंगत पहलुओं से भी जुड़ा हुआ है ‘राजाधिराज योग की विधा’ के रूप में। योग का ईश्वर प्रणिधान, मधुविद्या व  ध्यान मस्तिष्क की तरंगों की वक्रता को कम करके रक्तचाप तथा व्यग्रता को नियंत्रित करता है। प्राणायाम प्राणवायु बढ़ाकर फेफड़े ही नहीं कोशिकाओं को भी पुनर्जीवित करती है। यौगिक आसन शरीर खासकर मेरुदंड को लचीला बनाकर विकारों को दूर करते है।  इन तीनों को एक साथ व्यवहार कर रोग प्रतिरोध की क्षमता को काफी सुधार सकते हैं। कोविड-19 से लड़ने हेतु अच्छी इम्मुनिटी आवश्यक है। नेतागण और आमजन दोनों के लिए इसकी समान रूप से उपयोगिता है। 

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