सोशल मीडिया में एक तरफ भगवान राम को और दूसरी
ओर उनके द्वारा साधना में तल्लीन अवस्था में रत शंबूक वध को ऐतिहासिक बताने की
तीखी प्रतिस्पर्धा चल रही है। किसी रामायण में
रावण अभिशप्त खलनायक है तो कहीं पूज्य, तो कहीं सीताजी के पिता, तो
कहीं चाचा माना गया है। पर सच यह है कि न
राम ऐतिहासिक हैं न रावण और न ही राम द्वारा शंबूक वध। इस तरह की बातें शास्त्रों में क्षेपित की जाती रही हैं
आर्य-अनार्य, उत्तर-दक्षिण की राजनीति के तहत। अयोध्या व
चित्रकूट से लेकर करोड़ों वर्षों पहले प्रवाल शैल (कोरल रीफ)
जैसे हल्की चट्टानों से बने रामेश्ववरम के प्राकृतिक संधिपुल जैसे रोचक भौगोलिक
स्थितियों पर आधारित वाल्मीकि रामायण अद्भुत ग्रंथ ऐतिहासिक व भौतिक स्थान, काल व पात्र की सीमाओं से परे है। ऐसी कथाओं को तमाम तरीकों से ऐतिहासिक
बताने के भरपूर प्रयास किए गए हैं। पर अनेक देशों, क्षेत्रों
, कालों में ढेर सारे रामायण, हरेक की
भिन्न-भिन्न कहानियाँ। अनेक विद्वान तो वाल्मीकि के मूल रामायण के पूरे उत्तरकाण्ड
को ही क्षेपक मानते है जो वाल्मीकि की भाषा से मेल नहीं खाता (जिसमें वैदेही वनवास, लवकुश कांड, लवकुश का हनुमान व राम से युद्ध आदि
शामिल हैं) । वाल्मीकि रामायण की संस्कृत तो बहुत बाद की सरल संस्कृत है सातवीं
शताब्दी की । वाल्मीकि एक विशेष जाति के माने गए हैं पर भारत में जाति-व्यवस्था तो
गुप्तकाल में स्थापित हुई अर्थात तीसरी-पाँचवी शताब्दी। वाल्मीकि रामायण में बुद्ध
और उनके अनुयायी बौद्धों का उल्लेख आया है, अर्थात वाल्मीकि
रामायण बुद्ध के बाद का है। इसमें अयोध्याकाण्ड का सर्ग 109:
यथा हि चोरः स तथा
हि बुद्ध-
स्तथागतं
नास्तिकमत्र विद्धि।
के तस्माद्धि यः
शक्यतमः प्रजानां
स नास्तिके
नाभिमुखो बुधः स्यात् ॥ ३४॥
ऐसे प्राचीन ग्रन्थों की रचना के पीछे शिक्षा, हास्य,
दर्शन प्रधान उद्देश्य हुआ करते थे, अतः इन्हें इतिहास या
इतिवृत्तान्त के रूप में देखने की प्रवृत्ति ठीक नहीं है। आठवीं सदी में भवभूति ने
अपने उत्तररामचरित में दो सहेलियों के वार्तालाप के जरिये यह बताया कि महर्षि
वाल्मीकि का काल भवभूति से कुछ वर्षों पहले ही था।
आर्य-अनार्य के झगड़े को तो शैवतंत्र में ही
सुलझा दिया गया था इस आह्वान के साथ कि: 'हरमे
पिता च गौरी माता, स्वदेशो भुवनत्रय'--ईश्वर
को पिता और प्रकृति को मां समझो, तीनों लोक अपना देश।
आगे, कृष्ण के दर्शन में महाभारत की संकल्पना के साथ
ही ‘भागवत धर्म’ के नाम से व्यापक मानवधर्म और वृहद विश्व का वैश्विक निर्देश दिया
गया। पर गुप्तकाल के पराभव के साथ ही
पौराणिकों व सनातनियों ने इन महान संकल्पों को भुलाकर निहित वर्चस्ववादी मनोवृत्ति
के तहत समाज को क्षुद्र राजनीति में उलझा दिया। नतीजा, समाज
का क्षुद्र दर्शनों के आधार पर अनेक संप्रदायों और जातियों में बंटकर कमजोर पड़ना
और ‘विश्वगुरु’ भारत का लंबी गुलामी का
शिकार बनना। जो लोग इस या उस तरफ से
रामकथा को ऐतिहासिक बताते फिर रहे हैं वे देश को पुनः इन्ही अंतहीन विवादों
में उलझाकर और कमजोर करने का उपाय कर रहे हैं। हर धर्म या मजहब किसी न किसी तरह
अपने आप को सम्पूर्ण जीवन पद्धति के तौर पर पेश करता रहा है तथा अपने आप को औरों
से बेहतर बताता है जो सभ्यताओं के टकराव का मूल कारण है। हमारा दायित्व है राष्ट्रवादी, जातिवादी, संप्रदायवादी (हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई किसी भी)
संकीर्णताओं में न उलझकर 'वसुधैव कुटुम्बकम', विश्व बंधुत्व व मानव धर्म के
संकल्प को चरितार्थ करना।
यहाँ एक प्रचलित
दृष्टांत पर ताजी नज़र डालें: विभीषण ने अपने भाई के विरुद्ध भगवान राम का साथ दिया, पर विभीषण को समाज में हमेशा विश्वासघाती
ही माना गया। क्यों? वाल्मीकि रामायण में राम के मुख से ही
उल्लेख है, ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’--जननी
और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं। रामभक्त रहें चाहे श्यामभक्त, जन्मभूमि के प्रति निष्ठा जरूरी है। दूसरी तरफ,
इसी जन्मभूमि को कृष्ण के दर्शन में ‘महाभारत’ के रूप में समाहित किया गया है। इसको अनेक
लोग राष्ट्रवाद व राष्ट्रभक्ति से जोड़ते हैं। पर यह अधूरी व गड़बड़ सोच है। कृष्ण के
दर्शन में ‘भागवत
धर्म’ (मनुष्य को देवत्व में नही,
देवी-देवताओं में नहीं, धर्मों या मतवादों में नहीं; बल्कि भगवत्ता में, एक ईश्वर में) प्रतिष्ठित करने
का आह्वान है—'सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकम शरणम व्रज’—[सभी धर्मों का परित्याग कर मेरे एक (भागवत धर्म) की शरण में आओ]। यहाँ ‘सर्व धर्मान’ से अभिप्राय प्रचलित मत-मतांतरों से है
जिनका परित्याग करने को कहा गया है। आगे मानव धर्म के इस संकल्प को 'वसुधैव कुटुम्बकम' के साथ संयुक्त किया गया। अब इन
सबको वास्तविक विश्व सरकार की धारणा से जोड़ने की आवश्यकता है। इस व्यापक दृष्टि के साथ चलेंगे तो भीतर के
जाति-संप्रदाय के झगड़े, आतंकवाद व अतिवाद स्वतः कमजोर पड़
जाएंगे।
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