Sunday 26 April 2020

कोविड-19: चीन के खिलाफ अमेरिकी जांच के निहितार्थ

कोविड -19 पर चीन की भूमिका और स्थिति के बारे में विशेषज्ञों की राय अलग-अलग हैं । आगे के अनुसंधान और रहस्योद्घाटनों के साथ हम सच के करीब पहुंचेंगे।
नॉवेल कोरोना अब तक मानव अस्तित्व के लिए सबसे जटिल चुनौती है । चीन के खिलाफ दुनिया काफी उग्र हो रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने इस मानव विरोधी मुद्दे के चीनी कनेक्शन के बारे में जांच शुरू करा दी है । यह चीनी सरकार इस विश्व-व्यापी त्रासदी में विश्व समुदाय के साथ सच साझा करने में कहाँ तक  ईमानदार, खुली और जिम्मेदार है, इसकी  जांच करने के लिए है । प्रभावी जांच के लिए ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के कुछ अन्य सहयोगी भी इस पर दबाव डाल रहे हैं।
चाहे Covid-19 प्रकृति ने बनाया हो या आदमी ने, एक बात स्पष्ट है । Covid-19 आगे की कार्रवाई के लिए तात्कालिक कारक होने जा रहा है ।  चीन, उत्तर कोरिया और ऐसे अन्य सरकारों के निरंकुश व्यवस्थाओं को खत्म होने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए । अगर चीनी सत्ताधीश अपने निरंकुश, गैर-पारदर्शी और गैर-जिम्मेदाराना मंसूबों को जारी रखते हैं तो अमेरिका चीन से उसी तरह निपटना चाहेगा जैसे इराक, अफगानिस्तान आदि की निरंकुश व्यवस्थाओं के साथ किया गया था हालांकि यह चीन के साथ इतना आसान नहीं है ।  यदि चीन जानबूझकर चाहे अपनी प्रयोगशाला या बाजार में इस वायरस का निर्माता साबित होता है, जानकारी छुपाने और निरंकुश व्यवहार की आदत के चलते चीन जल्दी या बाद में अपने काल को आमंत्रित कर रहा है ।
दुनिया के अधिकांश लोग इस मुद्दे पर अमेरिका के साथ है । लेकिन रूस का समर्थन सुनिश्चित किए बिना यह संघर्ष बहुत जटिल और चुनौतीपूर्ण होगा । दरअसल, महाशक्ति की स्थिति के लिए अमेरिका और रूस एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं । वर्चस्व के इस खेल में चीन भी प्रवेश कर चुका है। रूस यहां अपना महत्वपूर्ण मूल्य जानता है । इस चुनौती से निपटने के लिए तीन विकल्प उपलब्ध हैं:
पहला विकल्प है, क्यों नहीं संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) के माध्यम से चीन से निपटें? तब संयुक्त राज्य अमेरिका अपने स्वयं के राष्ट्रीय कानूनों के माध्यम से स्वयंभू विश्व पुलिस के रूप में काम करने के लिए आलोचना का पत्र नहीं बनेगा--एक लंबे समय तक लगने वाला धब्बा जो उस पर लेबल होने जा रहा है, भले ही वह विजयी हो । लेकिन यूएनओ की कमजोर स्थिति के कारण यह विकल्प व्यवहारिक नहीं है। अगर डब्ल्यूएचओ चीन के प्रभाव में खेल सकता है और उसका सहयोगी है, तो UNO क्यों नहीं !
दूसरा विकल्प है,  संयुक्त राज्य अमेरिका अपने स्वार्थी पूंजीवादी तौर-तरीके समाजवाद दिशा में बदले और अधिक समाजवादी यूरोप  से बेहतर प्रतिबद्धता सुनिश्चित करने के लिए। इस बदली स्थिति के साथ और अधिक विश्वास के साथ रूसी समर्थन हासिल करने  की कोशिश कर सकते हैं । भारत इस प्रक्रिया का समर्थन कर सकता है। दोनों को विश्व बिरादरी के साथ जाना चाहिए।
दूसरे विकल्प के साथ ही, भारत और व्यापक विश्व समुदाय वास्तव में लोकतांत्रिक, सार्वभौमिक, संघीय, विज्ञान और न्याय उन्मुख विश्व सरकार के साथ समतावादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने की कोशिश कर सकते हैं । पूंजीवाद और साम्यवाद निरंकुश राजनीतिक-आर्थिक सत्ता पर काबिज होने और भोगने के लिए लोकतंत्र विरोधी रचनाएँ  हैं । भारत को पूंजीवाद और पिट्ठू पूंजीवाद के अपने तरीकों को भी ठीक करना होगा ।  अब तक जो वैश्विक व्यवस्था चल रही है, वह अप्रासंगिक होती जा रही है। डब्ल्यूएचओ, आईएमएफ, विश्व बैंक और यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ भी इस चल रहे पूंजीवादी व्यवस्था में काफी कमजोर साबित हुए हैं। प्रगतिशील समाजवाद या प्रगतिशील उपयोग तत्व (PROUT-- प्रउत) विचारधारा के तहत विश्व सरकार का एक पूर्ण नैतिक मॉडल प्रस्तावित किया गया है । चूंकि प्रगतिशील समाजवाद शब्द का चालाक राजनीतिकों द्वारा मनमाना  उपयोग किया जा रहा है, इसलिए ‘प्रउत’ शब्द को अब को विचारधारा के रूप में इस्तेमाल करना बेहतर है। प्रउत पर आधारित विज्ञान और प्रौद्योगिकी उन्मुख लोकतंत्र की आज बहुत जरूरत है । प्रो ग्लेन टी मार्टिन के नेतृत्व में विश्व संविधान और संसद संघ (WCPA) ने ऐसे किसी भी विश्व महासंघ या सरकार के लिए ठोस रेडी दस्तावेज उपलब्ध कराने के लिए विश्व कानून और संविधान पर काफी काम किया है । यह विश्व महासंघ या सरकार इस ब्रह्मांड में सभी के अस्तित्व, विकास और कल्याण को सुनिश्चित करने के लिए अपनी घटक इकाइयों के व्यवहार को विनियमित करेगी ।  मेरी समझ से विश्व समुदाय और भारत के लिए आज के समय में यही सर्वोत्तम पथ है।
##प्रोफेसर आर पी सिंह, 
वाणिज्य विभाग, 
गोरखपुर विश्वविद्यालय
E-mail: rp_singh20@rediffmail.com
    Contact : 9935541965

Friday 24 April 2020

रामायण की महाभारत



सोशल मीडिया में एक तरफ भगवान राम को और दूसरी ओर उनके द्वारा साधना में तल्लीन अवस्था में रत शंबूक वध को ऐतिहासिक बताने की तीखी प्रतिस्पर्धा चल रही है। किसी रामायण में  रावण अभिशप्त खलनायक है तो कहीं पूज्य, तो कहीं सीताजी के पिता, तो कहीं चाचा माना गया है।  पर सच यह है कि न राम ऐतिहासिक हैं न रावण और न ही राम द्वारा शंबूक वध। इस तरह की बातें  शास्त्रों में क्षेपित की जाती रही हैं आर्य-अनार्य, उत्तर-दक्षिण की राजनीति के तहत। अयोध्या व चित्रकूट से लेकर करोड़ों वर्षों पहले प्रवाल शैल (कोरल रीफ) जैसे हल्की चट्टानों से बने रामेश्ववरम के प्राकृतिक संधिपुल जैसे रोचक भौगोलिक स्थितियों पर आधारित वाल्मीकि रामायण अद्भुत ग्रंथ ऐतिहासिक व भौतिक स्थान, काल व पात्र की सीमाओं से परे है। ऐसी कथाओं को तमाम तरीकों से ऐतिहासिक बताने के भरपूर प्रयास किए गए हैं। पर अनेक देशों, क्षेत्रों , कालों में ढेर सारे रामायण, हरेक की भिन्न-भिन्न कहानियाँ। अनेक विद्वान तो वाल्मीकि के मूल रामायण के पूरे उत्तरकाण्ड को ही क्षेपक मानते है जो वाल्मीकि की भाषा से मेल नहीं खाता (जिसमें वैदेही वनवास, लवकुश कांड, लवकुश का हनुमान व राम से युद्ध आदि शामिल हैं) । वाल्मीकि रामायण की संस्कृत तो बहुत बाद की सरल संस्कृत है सातवीं शताब्दी की । वाल्मीकि एक विशेष जाति के माने गए हैं पर भारत में जाति-व्यवस्था तो गुप्तकाल में स्थापित हुई अर्थात तीसरी-पाँचवी शताब्दी। वाल्मीकि रामायण में बुद्ध और उनके अनुयायी बौद्धों का उल्लेख आया है, अर्थात वाल्मीकि रामायण बुद्ध के बाद का है। इसमें अयोध्याकाण्ड का सर्ग 109:
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्ध-
स्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।
के तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां
स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात् ॥ ३४॥

ऐसे प्राचीन ग्रन्थों की रचना के पीछे शिक्षा, हास्य, दर्शन प्रधान उद्देश्य हुआ करते थे, अतः इन्हें इतिहास या इतिवृत्तान्त के रूप में देखने की प्रवृत्ति ठीक नहीं है। आठवीं सदी में भवभूति ने अपने उत्तररामचरित में दो सहेलियों के वार्तालाप के जरिये यह बताया कि महर्षि वाल्मीकि का काल भवभूति से कुछ वर्षों पहले ही था।
आर्य-अनार्य के झगड़े को तो शैवतंत्र में ही सुलझा  दिया गया था इस आह्वान के साथ कि: 'हरमे पिता च गौरी माता, स्वदेशो भुवनत्रय'--ईश्वर को पिता और प्रकृति को मां समझो, तीनों लोक अपना  देश। 
आगे, कृष्ण के दर्शन में महाभारत की संकल्पना के साथ ही  भागवत धर्म के नाम से व्यापक मानवधर्म और वृहद विश्व का वैश्विक निर्देश दिया गया।  पर गुप्तकाल के पराभव के साथ ही पौराणिकों व सनातनियों ने इन महान संकल्पों को भुलाकर निहित वर्चस्ववादी मनोवृत्ति के तहत समाज को क्षुद्र राजनीति में उलझा दिया। नतीजा, समाज का क्षुद्र दर्शनों के आधार पर अनेक संप्रदायों और जातियों में बंटकर कमजोर पड़ना और विश्वगुरु भारत का लंबी गुलामी का शिकार बनना। जो लोग इस या उस तरफ से  रामकथा को ऐतिहासिक बताते फिर रहे हैं वे देश को पुनः इन्ही अंतहीन विवादों में उलझाकर और कमजोर करने का उपाय कर रहे हैं। हर धर्म या मजहब किसी न किसी तरह अपने आप को सम्पूर्ण जीवन पद्धति के तौर पर पेश करता रहा है तथा अपने आप को औरों से बेहतर बताता है जो सभ्यताओं के टकराव का मूल कारण है।  हमारा दायित्व है राष्ट्रवादी, जातिवादी, संप्रदायवादी (हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई किसी भी) संकीर्णताओं में न उलझकर   'वसुधैव कुटुम्बकम', विश्व बंधुत्व व मानव धर्म के संकल्प को चरितार्थ करना।
            यहाँ एक प्रचलित दृष्टांत पर ताजी नज़र डालें: विभीषण ने अपने भाई के विरुद्ध भगवान राम का साथ दिया, पर विभीषण को समाज में हमेशा विश्वासघाती ही माना गया। क्यों? वाल्मीकि रामायण में राम के मुख से ही उल्लेख है, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी--जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं। रामभक्त रहें चाहे श्यामभक्त, जन्मभूमि के प्रति निष्ठा जरूरी है। दूसरी तरफ, इसी  जन्मभूमि को कृष्ण के दर्शन में महाभारत के रूप में समाहित किया गया है। इसको अनेक लोग राष्ट्रवाद व राष्ट्रभक्ति से जोड़ते हैं। पर यह अधूरी व गड़बड़ सोच है। कृष्ण के दर्शन में  भागवत धर्म (मनुष्य को देवत्व में नही, देवी-देवताओं में नहीं, धर्मों या मतवादों में नहीं; बल्कि भगवत्ता में, एक ईश्वर में) प्रतिष्ठित करने का आह्वान है—'सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकम शरणम व्रज’—[सभी धर्मों का परित्याग कर मेरे एक (भागवत धर्म) की शरण में आओ] यहाँ सर्व धर्मान से अभिप्राय प्रचलित मत-मतांतरों से है जिनका परित्याग करने को कहा गया है। आगे मानव धर्म के इस संकल्प को 'वसुधैव कुटुम्बकम' के साथ संयुक्त किया गया। अब इन सबको वास्तविक विश्व सरकार की धारणा से जोड़ने की आवश्यकता है।  इस व्यापक दृष्टि के साथ चलेंगे तो भीतर के जाति-संप्रदाय के झगड़े, आतंकवाद व अतिवाद स्वतः कमजोर पड़ जाएंगे।    

Covid-19: Implications of US Investigation against China

Opinions of experts are sharply differing regarding the role and position of China on Covid-19. With further investigations and exposes we will come near to the truth.
Novel Corona is so far the most complicated challenge to human existance. The world is getting quite furious against China. U S President Trump has started inquiry about Chinese connection with this anti-human issue. This is a way to check as to how honest, open and responsible Chinese government is in upholding and sharing the truth with the world community. Australia and some other allies of America are also putting pressure on it for effective inquiry.
Whether Covid-19 is nature created or man made, one thing is obvious. Covid-19 is going to be the mmediate factor for further action.  The autocracies of  China, North Korea & so others must be forced to go. If the Chinese authorities continue with their autocratic, non-transparent and irresponsible designs, America would like to deal with China in the same way as was done with autocratic regimes of Iraq, Afghanistan, etc. though it is not so simple with China.  Whether China proves to be creator of this virus knowingly or else in its lab or market, it’s habit of hiding information and autocratic dealing is sooner or later going to put China into trouble.
Most of the world is with America on this issue. But without ensuring support of Russia, this struggle will be very complicated and challenging. In fact, USA and Russia are competing with each other for superpower position. China has also entered in this game of supremacy. Russia knows its critical value here. To deal with this challenge three options are available:

1) Why not tackle China through the United Nations. Then USA will not be criticized for working as the self-assumed world police through its own national laws—a long-lasting scar which is going to be labeled on it even if it emerges victorious. But this option is not feasible due to weak and vulnerable position of the UNO. If the WHO can play under influence of China and it’s allies, why not the UNO.
2) The USA can change its selfish capitalist ways into socialism to ensure better commitment from more socialized Europe and with this changed position it can try to win Russian support with more conviction. India may support this process. Both should go with world fraternity.
3) Along with the second option, India and the world community at large may try to  promote egalitarian tendencies with a truly democratic, universal, federal, science and justice oriented world government. Capitalism and communism are anti-democratic designs to capture and enjoy unfettered politico-economic power. India has also to mend its ways of capitalism & crony capitalism.  The global system that has been going on so far is becoming irrelevant. The WHO, the IMF, the World Bank and even the UN, have proved to be very weak in this ongoing capitalist order. A complete moralist model of world government has been proposed under Progressive Socialism or PROUT ideology. As the term progressive socialism is being misutilized by cunning polititions, I prefer to use PROUT as the ideology. A science & technology-oriented democracy based on PROUT is badly needed. World Constitution and Parliament Association (WCPA) led by Prof. Glen T. Martin has done much work on world law and constitution to provide a ready concrete document for any such world federation or government. This world federation or government will regulate the behavior of its constituent units to ensure survival, growth and welfare of all in this universe.

Sunday 12 April 2020

कोविड-19 के दौर में भारत का प्रगति-पथ


नॉवेल कोरोना वाइरस की महामारी ने सबकुछ ठप कराकर दुनिया के सामने अभूतपूर्व और विचित्र जटिलताएँ उत्पन्न कर दी हैं। इस महामारी के नियंत्रण के बाद दुनिया पहले जैसी नहीं रहेगी; आगे इसका स्वरूप कैसा होगा?—यह स्वाभाविक प्रश्न बहुतों के मन-मस्तिष्क में हिलोरें ले रहा है। इस महामारी के चलते भारत सहित विश्व के समक्ष ऐसी जटिलताएं शुरू हुई हैं जिनके दूरगामी प्रभाव होने जा रहे हैं और जो प्रकारांतर से इसी बात को पुनः रेखांकित करती है—भारत समेत विश्व की समस्याएँ सरकारों के बदलने से हल होने वाली नहीं हैं, व्यवस्था परिवर्तन करना होगा।

आर्थिक संकट—गहराती मंदी:
दुनिया के अर्थशास्त्रियों ने सन 2019 के आखिरी महीनों से ही मंदी की आशंका जतायी थी। कोरोना संकट इस मंदी को खाद-पानी दे रहा है। अब तो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) भी कह रहा है कि यह मंदी 1930 की महामंदी से अधिक विकराल होने जा रही है। यह विकसित और विकासशील दोनों ही तरह के राष्ट्रों को अपनी चपेट में ले रहा है। CMIE की 7 अप्रैल की रिपोर्ट है कि भारत में कुल बेरोजगारी 23.4 फीसदी हो गयी है जबकि शहरी बेरोजगारी 30.9 फीसदी।
श्री प्रभात रंजन सरकार तथा भारतीय मूल के अमेरिकी प्रोफेसर रवि बत्रा के व्यवसाय चक्रों के  अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि सन् २०२० से आरम्भ यह महामन्दी छः वर्षों तक (सामाजिक, आर्थिक, मानसिक सभी क्षेत्रों में) चलेगी ही और फिर २०२९-३० से २०३६ तक स्फीति और महायुद्ध का काल होगा। इन उतार चढ़ावों की तीव्रता जितनी अधिक होगी आमजन के कष्ट और बर्बादी उतनी अधिक। इन उतार चढ़ावों को हल्का किया जा सकता है और इनकी विकरालता को काफी कम किया जा सकता है, लोकतांत्रिक, सार्वभौमिक, विज्ञान व नीतिपूर्ण समताकारी प्रवृत्तियों का विश्व सरकार के वास्तविक संयोजन से, जैसा कि प्रउत विचारधारा मानती है । अब तक चल रही वैश्विक व्यवस्था अप्रासंगिक होती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक जैसे इस व्यवस्था के पाये बहुत कमजोर साबित हुए हैं। ‘प्रउत’ है प्रगतिशील उपयोग तत्व [Progressive Utilization Theory(PROUT)], जो  पूंजीवाद और साम्यवाद के अतिवादी सनक से अलग वैश्विक दृष्टि तथा स्थानीय जन विकास की  एक समन्वित विचार प्रणाली है।
प्रउत है तो सामाजिक-आर्थिक दर्शन लेकिन यह अध्यात्म, योग व तंत्र के वैज्ञानिक व युक्तिसंगत पहलुओं से भी जुड़ा हुआ है ‘राजाधिराज योग की विधा’ के रूप में। योग का ईश्वर प्रणिधान, मधुविद्या व  ध्यान मस्तिष्क की तरंगों की वक्रता को कम करके रक्तचाप  तथा व्यग्रता को नियंत्रित करता है। प्राणायाम प्राणवायु बढ़ाकर फेफड़े ही नहीं कोशिकाओं को भी पुनर्जीवित करती है। यौगिक आसन शरीर खासकर मेरुदंड को लचीला बनाकर विकारों को दूर करते है।  इन तीनों  को एक साथ व्यवहार कर रोग प्रतिरोध की क्षमता को काफी सुधार सकते हैं। कोविड-19 से लड़ने हेतु अच्छी इम्मुनिटी आवश्यक है।

प्रवासी श्रमिकों का पलायन व श्रम सम्बन्धों का संकट:
लाकडाऊन के साथ ही दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों से जिस तरह जीविका और मौलिक सुविधाओं से वंचित होने के तात्कालिक संकट तथा संभावित आशंका के चलते दिहाड़ी मजदूरों को जैसे, जिस हाल में भागना पड़ा, इससे सभी परिचित हैं। इस पलायन में केंद्र सरकार की कार्ययोजना, दिल्ली सरकार की कार्यविधि तथा फैक्ट्रियों व संस्थाओं के मालिकों की असमर्थता व असहयोग—सभी की भूमिका पर प्रश्नचिह्न तो लगे ही हैं, इससे इन दिहाड़ी मजदूरों में विश्वास का बड़ा संकट उत्पन्न हो गया है।  16 मार्च से ही बड़ी संख्या में एकत्रित होने पर प्रतिबंध के बावजूद पुलिस स्टेशन की दीवाल से सटे मरकज़ निज़ामुद्दीन में 28 मार्च तक 200 से अधिक के एकत्रण ने तो इंटेलिजेंस और सरकारों व पुलिस के एक्शन और नोटिस-नोटिस के खेल पर ही सवाल खड़ा कर दिया।  सूरत के  प्रवासी श्रमिक तो बदहाली से परेशान हो विद्रोह को ही विवश हो गए। ऐसे में इनको काम पर वापस लौटने से पहले बहुत सोचना पड़ेगा। श्रमिकों के अभाव में  इन फैक्ट्रियों व संस्थाओं को पुनः आरंभ करना एक बड़ी चुनौती है।   अभी से माना जा रहा है कि 40 करोड़ दिहाड़ी मजदूर बेकारी के चलते अत्यधिक गरीबी में गिरने जा रहे हैं।
अब बिहार, यूपी, छत्तीसगढ़ आदि की सरकारें अपने ही राज्य में रोजगार के विकल्प ढूढ़ने को बाध्य हैं। पर यह दीर्घकालीन रणनीतिक प्रक्रिया है। प्रउत विचारधारा पहले से समझाती आ रही है कि प्रत्येक क्षेत्र में स्थानीय  संसाधनो के अनुरूप अधिक से अधिक उद्यम लगने चाहिए जिन्हें समन्वित सहकारी समितियों द्वारा चलाया जाय। समन्वित सहकारी समितियां प्रचलित सहकारी समितियों की तुलना में  कहीं अधिक व सही अर्थों में जनवादी हैं। अधीनस्थ श्रमिकों व आमजन को इन समितियों में अंशधारक हितधारी के रूप में स्वामित्व दिया जाय। इससे श्रमिकों का पलायन कम होगा, रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और क्षेत्रीय विकास में समृद्धकारी संतुलन आयेगा। महानगरीय इलाकों का बोझ और सामाजिक विकृतियाँ भी घटेंगी।

आर्थिक उत्पादन के वैश्विक धुरी में बदलाव—भारत के लिए अवसर या चुनौती:
  चीन पिछले तीन दशकों से हर तरह के उपभोक्ता तथा निम्न प्रौद्योगिकी वस्तुओं के उत्पादन की वैश्विक धुरी बन गया था। हाल ही में दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ देश, इंडोनेशिया, मलएशिया, थाइलैंड आदि भी इसमें शामिल हो गए।  आज अमेरिका व यूरोप समेत पूरी दुनिया चीन से नाराज़ है। जापान ने आर्थिक दूरी की नीति के तौर पर तो वहाँ से अपना कारोबार समेट ही रहा है। भारत के लिए एक बड़ा अवसर है, आर्थिक धुरी के रूप में चीन का स्थान लेने का। पर यह अवसर तो भारत के पास पहले भी था, लेकिन हम इसका लाभ नहीं ले पाये। दुनिया का सकारात्मक मूड भारत को अवसर तो दे रहा है, पर हमें सही तैयारी शीघ्र करनी होगी, नहीं तो फिर चूकेंगे। मत भूलिए, ब्राजील, मेक्सिको, दक्षिण पूर्व एशिया और खुद यूरोप भी स्पर्धा में हैं।  भारत को अवसर तो मिला है, प्रसंशा भी खूब मिल रही है, पर थाली में मुकुट सज़ाकर मिलेगा, यह भ्रम पालने से नहीं चलेगा।
हमें समझना होगा कि एक साम्यवादी देश होने के बावजूद चीन पूंजीवादी देशों की पसंद बना अपनी व्यस्थागत स्थिरता (राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक हर स्तर पर) और अनुशासन के चलते। भारत में व्यस्थागत स्थिरता और अनुशासन लाने के लिए बहुत आवश्यक है कि वोट की राजनीति के तहत धार्मिक, सांप्रदायिक व जातीय ध्रुवीकरण और ठकेदारी का खेल बंद हो; संप्रदायों की विविधता का उपयोग तो हो पर उनकी प्रत्यक्ष और परोक्ष (धर्म और अध्यात्म जैसे उत्कृष्ट शब्दों की आड़ में पुरापन्थवाद, पवित्र ग्रंथों की अंधभक्ति के द्वारा) गला काट प्रतियोगिता रोका जाय। पर कैसे? साम्प्रदायिक और जातीय वर्चस्व की संकीर्ण भाव-प्रवणताओं (सेंटिमेंट्स) को जाति, पंथ या धर्म-निरपेक्षता की तटस्थ नीति से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। विज्ञानवाद, मानव धर्म, वैज्ञानिक अध्यात्म, वैश्विक भ्रातृत्व और एकेश्वरवाद को एकताकारी शक्ति (यूनिफाइङ्ग फोर्स) के तौर पर व्यापक धनात्मक नीति के रूप में देश के भीतर और बाहर ले के चलना होगा।

नेतृत्व का संकट:
व्यवस्था परिवर्तन की सबसे बड़ी चुनौती वैश्विक नेतृत्व को लेकर सामने आने जा रही है। अबतक तथाकथित लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में राजनीतिक दल संप्रदाय, जाति, नस्ल, पुरापंथ, भाषा, क्षेत्रादि संकीर्ण भावनाओं का उपयोग कर सत्ता हासिल तो लेते हैं पर अपनी घटिया नीतियों से समाज व मानवता की भारी क्षति करते रहे हैं और  साधनों की बरबादी। इस महामारी ने अमेरिका व चीन जैसे महाशक्तियों की असलियत खोल कर रख दी है। अनेक देश पूंजीवादी छल-प्रपंचों में फंसे हुए हैं तो कुछ देशों में साम्यवाद की आड़ में तानाशाही बादशाहत चलती रही है। दुनिया पूंजीवाद और  साम्यवाद के बीच झूलती रही है। इससे बाहर निकलना होगा।
कोरोना वाइरस को लेकर चीन गहरे संदेह के घेरे में है—इस वाइरस की उत्पत्ति को लेकर, इसके प्रसार की सूचनाओं को छिपाने को लेकर तथा महामारी से गंभीर रूप से ग्रस्त देशों की मदद में भी घटिया आपूर्ति और मुनाफाखोरी को लेकर। संकटग्रस्त देशों की जनता गुस्से में है चीन की सरकार के खिलाफ। इस महामारी से इन देशों पीड़ा जितनी बढ़ेगी, मौतें जितनी अधिक होंगी, इन देशों की जनता का बढ़ता गुस्सा इन सरकारों पर चीन से बदला लेने, क्षतिपूर्ति लेने तथा उसे ठीक करने का दबाव उतना ही अधिक बढ़ेगा। अमेरिका की प्रतिष्ठा को, उसकी प्रभुता को जबर्दस्त धक्का लगा। है। अमेरिका और इसके सहयोगी इसे आसानी से पचा नहीं पाएंगे। अब प्रमुख देशों के नेताओं के बीच कड़ा मुकाबला होने जा रहा है कि कॉविड-19 के बाद के दौर में नई विश्व व्यवस्था का नेतृत्व कौन करेगा?
हर क्षेत्र में महामंदी के निराशाजनक माहौल में नेतृत्व की चुनौती तो आनी है। बहिर्दबाव चालित नेतृत्व के स्थान पर वैज्ञानिक आध्यात्मिकता चालित (अंतरुद्भूत) नेतृत्व लाना उचित है। भारत में कुछ लोग रामराज्य का सुझाव देते हैं, पर यह सोच ठीक नहीं—रामराज्य ही क्यों, शिवराज्य क्यों नहीं, कृष्णराज्य क्यों नहीं, बुद्धराज्य ही क्यों नहीं?
शिवराज्य जिसमें सुर-असुर, आर्य-अनार्य का सुंदर समन्वय है इस आह्वान के साथ—('वसुधैव कुटुम्बकम' से भी आगे) 'हरमे पिता च गौरी माता, स्वदेशो भुवनत्रय'--ईश्वर को पिता और प्रकृति को मां समझो, तीनों लोक अपना  देश।;  कृष्णराज्य, जिसमें भागवत धर्म के नाम से व्यापक मानवधर्म की प्रतिष्ठा है, वृहद विश्व का निर्देश है; और सम्यक जीवन शैली, समानता, विवेक और काफी हद तक वैज्ञानिकता पर चलने वाले यथार्थपूर्ण  बुद्धराज्य तो इन सबसे अधिक विश्वसनीय है। परंतु इन सभी खंडदृष्टियों का उन्नत समन्वय है प्रउत-दर्शन जो विश्ववादी सोच, नैतिकवादी और कौशलपरक नेतृत्व पर केन्द्रित है। इस व्यव्स्था परिवर्तन हेतु  प्रउत-दर्शन को गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। अन्यथा  चाहे जो भी पार्टी सत्ता में आ जाय, उसके नेता चाहे दुनिया भर की जितनी बड़ी-बड़ी बातें करें, स्थिति वही रहेगी।

प्रोफेसर आर पी सिंह,
वाणिज्य विभाग,
गोरखपुर विश्वविद्यालय
E-mail: rp_singh20@rediffmail.com
सम्पर्क : 9935541965



नयी महामारी से निपटान को नया नज़रिया

कोरोना वाइरस की महामारी ने सबकुछ ठप कराकर दुनिया के सामने अभूतपूर्व और विचित्र जटिलताएँ उत्पन्न कर दी हैं। इस महामारी के नियंत्रण के बाद दुनिया पहले जैसी नहीं रहेगी; आगे इसका स्वरूप कैसा होगा?—यह स्वाभाविक प्रश्न बहुतों के मन-मस्तिष्क में हिलोरें ले रहा है। इस महामारी के कुछ सकारात्मक लाभ हो रहे हैं। प्रदूषण काफी घटा है, प्रकृति को पुनः स्वस्थ होने का अभूतपूर्व मौका मिला है। लेकिन इसके चलते भारत सहित विश्व के समक्ष ऐसी जटिलताएं शुरू हुई हैं जिनके दूरगामी प्रभाव होने जा रहे हैं। एक ओर श्रमिकों की उपेक्षा और कठिनाइयाँ बढ़ी है, तो दूसरी ओर पूंजीवादी और पोंगापंथी वर्चस्व बढ़ा है। यह सारी बातें प्रकारांतर से इसी बात को पुनः रेखांकित करती हैं—भारत समेत विश्व की समस्याएँ सरकारों के बदलने से हल होने वाली नहीं हैं, व्यवस्था परिवर्तन करना होगा।  

आर्थिक संकट—गहराती मंदी
दुनिया के अर्थशास्त्रियों ने सन 2019 के आखिरी महीनों से ही मंदी की आशंका जतायी थी। कोरोना संकट इस मंदी को खाद-पानी दे रहा है। अब तो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) भी कह रहा है कि यह मंदी 1930 की महामंदी से अधिक विकराल होने जा रही है। यह विकसित और विकासशील दोनों ही तरह के राष्ट्रों को अपनी चपेट में ले रहा है। CMIE की 7 अप्रैल की रिपोर्ट है कि भारत में कुल बेरोजगारी 23.4 फीसदी हो गयी है जबकि शहरी बेरोजगारी 30.9 फीसदी। 
श्री प्रभात रंजन सरकार तथा भारतीय मूल के अमेरिकी प्रोफेसर रवि बत्रा के व्यवसाय चक्रों के  अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि सन् 2019-20 से आरम्भ यह महामन्दी छः वर्षों तक (सामाजिक, आर्थिक, मानसिक सभी क्षेत्रों में) चलेगी ही और फिर 2029-30 से 2036 तक स्फीति और महायुद्ध का काल होगा। इन उतार चढ़ावों की तीव्रता जितनी अधिक होगी आमजन के कष्ट और बर्बादी उतनी अधिक। इन उतार चढ़ावों को हल्का किया जा सकता है और इनकी विकरालता को काफी कम किया जा सकता है, लोकतांत्रिक, सार्वभौमिक, विज्ञान व नीतिपूर्ण समताकारी प्रवृत्तियों का विश्व सरकार के वास्तविक संयोजन से, जैसा कि प्रउत विचारधारा मानती है । अब तक चल रही वैश्विक व्यवस्था अप्रासंगिक होती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक जैसे इस व्यवस्था के पाये बहुत कमजोर साबित हुए हैं। ‘प्रउत’ है प्रगतिशील उपयोग तत्व [Progressive Utilization Theory(PROUT)], जो  पूंजीवाद और साम्यवाद के अतिवादी सनक से अलग वैश्विक दृष्टि तथा स्थानीय जन विकास की एक समन्वित विचार प्रणाली है।  

प्रवासी श्रमिकों का पलायन व श्रम सम्बन्धों का संकट
लाकडाऊन के साथ ही दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों से जिस तरह जीविका और मौलिक सुविधाओं से वंचित होने के तात्कालिक संकट तथा संभावित आशंका के चलते दिहाड़ी मजदूरों को जैसे, जिस हाल में भागना पड़ा, इससे सभी परिचित हैं। इस पलायन में केंद्र सरकार की कार्ययोजना, दिल्ली सरकार की कार्यविधि तथा फैक्ट्रियों व संस्थाओं के मालिकों की असमर्थता व असहयोग—सभी की भूमिका पर प्रश्नचिह्न तो लगे ही हैं, इससे इन दिहाड़ी मजदूरों में विश्वास का बड़ा संकट उत्पन्न हो गया। 16 मार्च से ही बड़ी संख्या में एकत्रित होने पर प्रतिबंध के बावजूद पुलिस स्टेशन की दीवाल से सटे मरकज़ निज़ामुद्दीन में 28 मार्च तक 200 से अधिक के एकत्रण ने तो इंटेलिजेंस और सरकारों व पुलिस के एक्शन और नोटिस-नोटिस के खेल पर ही सवाल खड़ा कर दिया।  सूरत के प्रवासी श्रमिक तो बदहाली से परेशान हो विद्रोह को ही विवश हो गए। ऐसे में इन श्रमिकों को काम पर वापस लौटने से पहले बहुत सोचना पड़ेगा । श्रमिकों के अभाव में इन फैक्ट्रियों व संस्थाओं को पुनः आरंभ करना एक बड़ी चुनौती है। यद्यपि मालिक लोग इन श्रमिकों को वापस बुलाने के लिए रोजगार एजेंटों का उपयोग का रहे हैं पर ये एजेन्ट इन श्रमिकों के पलायन के समय तो गायब ही थे, मदद या संभालने का प्रयास किए क्या! अभी से माना जा रहा है कि 40 करोड़ दिहाड़ी मजदूर बेकारी के चलते अत्यधिक गरीबी में गिरने जा रहे हैं। 

प्रउत का समाधान 
अब बिहार, यूपी, छत्तीसगढ़ आदि की सरकारें अपने ही राज्य में रोजगार के विकल्प ढूढ़ने को बाध्य हैं। पर यह दीर्घकालीन रणनीतिक प्रक्रिया है। प्रउत विचारधारा समझाती आ रही है कि प्रत्येक क्षेत्र में स्थानीय  संसाधनो के अनुरूप अधिक से अधिक उद्यम लगने चाहिए जिन्हें समन्वित सहकारी समितियों द्वारा चलाया जाय। समन्वित सहकारी समितियां प्रचलित सहकारी समितियों की तुलना में कहीं अधिक व सही अर्थों में जनवादी हैं। अधीनस्थ श्रमिकों व आमजन को इन समितियों में अंशधारक हितधारी के रूप में स्वामित्व दिया जाय। इससे श्रमिकों का पलायन कम होगा, रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और क्षेत्रीय विकास में समृद्धकारी संतुलन आयेगा। महानगरीय इलाकों का बोझ और सामाजिक विकृतियाँ भी घटेंगी।
प्रउत के अनुसार सभी मध्यम आकार के उत्पादक, निर्माणी, श्रम, उपभोक्ता आपूर्ति तथा व्यवसायिक इकाइयां तथा कृषि व कृषि संबंधी उद्योग समन्वित सहकारी समितियों द्वारा संचालित होंगी। अबतक सहकारी समितियां सरकारी विभागों के नियंत्रण में चलती रहीं हैं जिनमें सत्ताधारी राजनेता और नौकरशाह अपना प्रत्यक्ष या परोक्ष कब्जा बनाएँ रखते हैं, आम सदस्यों की बातें अनसुनी जाती हैं; नतीजा अकुशलता, घोटाला और घाटा। ऐसी अधीनस्थ सहकारी समितियां असफल होती रही हैं। सहकारी समितियों में सरकारों को  केवल ‘फ्रेंड, फिलासफर और गाइड’ की परोक्ष सकारात्मक भूमिका तक सीमित रहना चाहिए। श्रमिकों को सहकारी समिति से पारिश्रमिक के अलावा अंशधारक के तौर पर लाभांश भी मिलेगा, पूंजी/भूमि के अनुपात में ब्याज और किराए के अलावा। ठेके या कार्पोरेट खेती के बजाय समन्वित सहकारी खेती का विकल्प कम से कम छोटी जोतों के लिए उचित है। 
    इस महामारी काल में पूरी दुनिया में सार्वजनिक प्रतिष्ठानों की बहुत अच्छी भूमिका देखी गयी है। सभी बड़े उद्यम यथासंभव सरकारी/सार्वजनिक  नियंत्रण में चलाएं जाएँ। छोटे व्यवसाय निजी स्वामित्व में रखें। 
    रोजगार नीति यह है कि उचित विकेंद्रित नियोजन के द्वारा साधनों के उपयोग और आर्थिक क्रियाओं का स्तर हर क्षेत्र में ऊंचा करके शत-प्रतिशत रोजगार सुनिश्चित करना होगा। किसी भी क्षेत्र में किसी एक व्यवसाय पर अधिक निर्भर न करके प्रायः 30-40 प्रतिशत रोजगार कृषि में, 20% कृषि आधारित उद्यमों में, 20%  कृषि सहायक उद्यमों में, 10-20% गैर-कृषि उद्योगों में, 10% व्यापार-वाणिज्य में तथा 10% सफ़ेद-पोष क्रियाओं में रखना संतुलित अर्थव्यवस्था हेतु अपेक्षित है।
    कृषि उपज के मूल्य निर्धारण के मामले में इसे उद्योग की तरह ही देखना उचित है। लागत पर उचित लाभ तथा रिस्क प्रीमियम के साथ न्यूनतम मूल्य की गारंटी होनी चाहिए। कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों के बीच आय के अंतर को कम किया जाना आवश्यक है। स्थानीय स्तर पर कृषि आधारित उद्योगों की व्यवस्था कर पैदावार में विविधता लाने की जरूरत है।
    सभी के लिए पाँच न्यूनतम जरूरतों—भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा व चिकित्सा की उचित गारंटी करनी होगी—प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण, न्यूनतम आय तथा  रोजगार की प्रभावी गारंटी के द्वारा। केंद्रीकृत नियामक राजव्यवस्था एवं विकेंद्रित सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की नीति अपनाकर देश और दुनिया में अनुशासन और गति लानी होगी।  ये हैं प्रउत के आर्थिक नीति की मुख्य बातें।   
      
आर्थिक उत्पादन के वैश्विक धुरी में बदलाव—भारत के लिए अवसर या चुनौती
     चीन पिछले तीन दशकों से हर तरह के उपभोक्ता तथा निम्न प्रौद्योगिकी वस्तुओं के उत्पादन की वैश्विक धुरी बन गया था। इसे दुनिया का मैनुफक्चरिंग कैपिटल भी कहा गया है। हाल ही में दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ देश, इंडोनेशिया, मलएशिया, थाइलैंड आदि भी इसमें शामिल हो गए।  आज अमेरिका व यूरोप समेत पूरी दुनिया चीन से नाराज़ है। जापान आर्थिक दूरी की नीति के तौर पर वहाँ से अपना कारोबार समेट रहा है। भारत के लिए एक बड़ा अवसर है, आर्थिक धुरी के रूप में चीन का स्थान लेने का। यह अवसर तो भारत के पास पहले भी था, लेकिन हम इसका लाभ नहीं ले पाये। दुनिया का सकारात्मक मूड भारत को अवसर तो दे रहा है, पर हमें सही तैयारी शीघ्र करनी होगी, नहीं तो फिर चूकेंगे। मत भूलिए, ब्राजील, मेक्सिको, दक्षिण पूर्व एशिया और खुद यूरोप भी स्पर्धा में हैं।  भारत को अवसर तो मिला है, प्रसंशा भी खूब मिल रही है, पर थाली में मुकुट सज़ाकर मिलेगा, यह भ्रम पालने से नहीं चलेगा। 
हमें समझना होगा कि एक साम्यवादी देश होने के बावजूद चीन पूंजीवादी देशों की पसंद बना अपनी व्यस्थागत स्थिरता (राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक हर स्तर पर) और अनुशासन के चलते। भारत में व्यस्थागत स्थिरता और अनुशासन लाने के लिए बहुत आवश्यक है कि नोट और वोट की राजनीति के तहत पूंजीवाद की छिपी अर्चना, धार्मिक, सांप्रदायिक व जातीय ध्रुवीकरण, वर्चस्व की गला काट स्पर्धा  और ठकेदारी का खेल बंद हो। पर कैसे? साम्प्रदायिक और जातीय वर्चस्व की संकीर्ण भाव-प्रवणताओं (सेंटिमेंट्स) को जाति, पंथ या धर्म-निरपेक्षता की तटस्थ नीति से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। विज्ञानवाद, मानवता मूलक मानव धर्म, वैज्ञानिक अध्यात्म, वैश्विक भ्रातृत्व और एकेश्वरवाद को एकताकारी शक्ति (यूनिफाइङ्ग फोर्स) के तौर पर व्यापक धनात्मक नीति के रूप में देश के भीतर और बाहर ले के चलना होगा। इसके लिए आज भारत समेत पूरी दुनिया को इन्हीं तत्वों के समावेश के साथ सम्पूर्ण सांस्कृतिक क्रांति की आवश्यकता है। पर यह क्रांति माओ के चीनी वामपंथी क्रांति से सर्वथा भिन्न रहेगी। 
भारत यदि उत्पादन की वैश्विक धुरी का सामर्थ्य हासिल करने में सफल होता है तो इसकी विशाल युवा जनसंख्या को रोजगार व समृद्धि के  बड़े अवसर उपलब्ध हो जाएंगे। इस मुद्दे पर गंभीर चिंतन और प्रयास की आवश्यकता है। प्रउत अर्थ-दर्शन को अपनाने का बिलकुल अनुकूल समय है। 

नेतृत्व का संकट
व्यवस्था परिवर्तन की सबसे बड़ी चुनौती वैश्विक नेतृत्व को लेकर सामने आने जा रही है। अबतक तथाकथित लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में राजनीतिक दल संप्रदाय, जाति, नस्ल, पुरापंथ, भाषा, क्षेत्रादि संकीर्ण भावनाओं का उपयोग कर सत्ता हासिल तो लेते हैं पर अपनी घटिया नीतियों से समाज व मानवता की भारी क्षति करते रहे हैं और  साधनों की बरबादी। इस महामारी ने अमेरिका व चीन जैसे महाशक्तियों की असलियत खोल कर रख दी है। अनेक देश पूंजीवादी छल-प्रपंचों में फंसे हुए हैं तो कुछ देशों में साम्यवाद की आड़ में तानाशाही बादशाहत चलती रही है। दुनिया पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच झूलती रही है। इससे बाहर निकलना होगा। 
कोरोना वाइरस को लेकर चीन गहरे संदेह के घेरे में है—इस वाइरस की उत्पत्ति को लेकर, इसके प्रसार की सूचनाओं को छिपाने को लेकर तथा महामारी से गंभीर रूप से ग्रस्त देशों की मदद में भी घटिया आपूर्ति और मुनाफाखोरी को लेकर। संकटग्रस्त देशों की जनता गुस्से में है चीन की सरकार के खिलाफ। इस महामारी से इन देशों की पीड़ा जितनी बढ़ेगी, मौतें जितनी अधिक होंगी, इन देशों की जनता का बढ़ता गुस्सा इन सरकारों पर चीन से बदला लेने, क्षतिपूर्ति लेने तथा उसे ठीक करने का दबाव उतना ही अधिक बढ़ेगा। अमेरिका की प्रतिष्ठा को, उसकी प्रभुता को जबर्दस्त धक्का लगा। है। अमेरिका और इसके सहयोगी इसे आसानी से पचा नहीं पाएंगे। अब प्रमुख देशों के नेताओं के बीच कड़ा मुकाबला होने जा रहा है कि कोविड-19 के बाद के दौर में नई विश्व व्यवस्था का नेतृत्व कौन करेगा? 
हर क्षेत्र में महामंदी के निराशाजनक माहौल में नेतृत्व की चुनौती तो आनी है। बहिर्दबाव चालित नेतृत्व के स्थान पर वैज्ञानिक आध्यात्मिकता चालित (अंतरुद्भूत) नेतृत्व लाना उचित है। भारत में कुछ लोग रामराज्य का सुझाव देते हैं, पर यह सोच ठीक नहीं—रामराज्य ही क्यों, शिवराज्य क्यों नहीं, कृष्णराज्य क्यों नहीं, बुद्धराज्य ही क्यों नहीं?
शिवराज्य जिसमें सुर-असुर, आर्य-अनार्य का सुंदर समन्वय है इस आह्वान के साथ—('वसुधैव कुटुम्बकम' से भी आगे) 'हरमे पिता च गौरी माता, स्वदेशो भुवनत्रय'--ईश्वर को पिता और प्रकृति को मां समझो, तीनों लोक अपना  देश।; कृष्णराज्य, जिसमें भागवत धर्म के नाम से व्यापक मानवधर्म की प्रतिष्ठा है, वृहद विश्व का निर्देश है; और सम्यक जीवन शैली, समानता, विवेक और काफी हद तक वैज्ञानिकता पर चलने वाले यथार्थपूर्ण बुद्धराज्य तो इन सबसे अधिक विश्वसनीय है। परंतु इन सभी खंडदृष्टियों का उन्नत समन्वय है प्रउत-दर्शन जो विश्ववादी सोच, नैतिकवादी और कौशलपरक नेतृत्व पर केन्द्रित है। इस व्यव्स्था परिवर्तन हेतु  प्रउत-दर्शन को गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। अन्यथा चाहे जो भी पार्टी सत्ता में आ जाय, उसके नेता चाहे दुनिया भर की जितनी बड़ी-बड़ी बातें करें, स्थिति वही रहेगी।
प्रउत है तो सामाजिक-आर्थिक दर्शन लेकिन यह अध्यात्म, योग व तंत्र के वैज्ञानिक व युक्तिसंगत पहलुओं से भी जुड़ा हुआ है ‘राजाधिराज योग की विधा’ के रूप में। योग का ईश्वर प्रणिधान, मधुविद्या व  ध्यान मस्तिष्क की तरंगों की वक्रता को कम करके रक्तचाप तथा व्यग्रता को नियंत्रित करता है। प्राणायाम प्राणवायु बढ़ाकर फेफड़े ही नहीं कोशिकाओं को भी पुनर्जीवित करती है। यौगिक आसन शरीर खासकर मेरुदंड को लचीला बनाकर विकारों को दूर करते है।  इन तीनों को एक साथ व्यवहार कर रोग प्रतिरोध की क्षमता को काफी सुधार सकते हैं। कोविड-19 से लड़ने हेतु अच्छी इम्मुनिटी आवश्यक है। नेतागण और आमजन दोनों के लिए इसकी समान रूप से उपयोगिता है।