Sunday 11 October 2015

हिन्दुत्व से वसुधैव कुटम्बकम की ओर

मूर्ति पूजा का रहस्य बताने में स्वामी विवेकानंदजी का एक दृष्टान्त प्रायः दिया जाता है:-
स्वामी विवेकानंद को एक राजा ने अपने भवन में बुलाया और बोला, आपलोग मूर्ती की पूजा करते हो! मिट्टी, पीतल, पत्थर की मूर्ति का! पर मैं ये सब नही मानता। ये तो केवल एक पदार्थ है।
उस राजा के सिंहासन के पीछे किसी आदमी की तस्वीर लगी थी। विवेकानंद जी कि नजर उस तस्वीर पर पड़ी। विवेकानंद जी ने राजा से पूछा, “राजा जी, ये तस्वीर किसकी है?”
राजा बोला, “मेरे पिताजी की।स्वामी जी बोले, “उस तस्वीर को अपने हाथ में लीजिये।राजk तस्वीर को हाथ मे ले लेता है।
स्वामी जी राजा से: “अब आप उस तस्वीर पर थूकिए!” राजा: “ये आप क्या बोल रहे हैं स्वामी जी?” स्वामी जी: “मैंने कहा उस तस्वीर पर थूकिए!” राजा (क्रोध से) : “स्वामी जी, आप होश मे तो हैं ना? मैं ये काम नही कर सकता।
स्वामी जी बोले, “क्योंये तस्वीर तो केवल एक कागज का टुकड़ा हैऔर जिस पर कूछ रंग लगा है। इसमे ना तो जान हैना आवाजना तो ये सुन सकता हैऔर ना ही कुछ बोल सकता है।
और स्वामी जी बोलते गए, “इसमें ना ही हड्डी है और ना प्राण। फिर भी आप इस पर कभी थूक नही सकते। क्योंकि आप इसमे अपने पिता का स्वरूप देखते हो। और आप इस तस्वीर का अनादर करना अपने पिता का अनादर करना  ही समझते हो।
थोड़े मौन के बाद स्वामी जी आगे कहा, “वैसे ही, हम हिंदू भी उन पत्थर, मिट्टी, या धातु की पूजा भगवान का स्वरूप मान कर करते हैं। भगवान तो कण-कण मे है, पर एक आधार मानने के लिए और मन को एकाग्र करने के लिए हम मूर्ति पूजा करते हैं।
स्वामी जी की बात सुनकर राजा ने स्वामी जी के चरणों में गिर कर क्षमा माँगी।
पर बात अभी अधूरी है। विवेकानंद ने यह भी कहा है कि मूर्तिपूजा गलत तो बिलकुल नहीं है जैसे बच्चे का प्राइमरी में alphabet पढ़ना पर बच्चा सालों तक alphabet ही पढ़ता रह जाय तो समझो उसका विकास रुका हुआ है। मूर्ति व मूर्तिपूजा के प्रति अधिक आग्रह मन के विकास को बाधित करता है। कहीं यही आग्रह हिंदुत्व के विकास में बाधक तो नहीं बना जब कि हमारे पूर्वज 'वसुधैव कुटम्बकम' के व्यवहारी थे। ज्ञानवादी बुद्धिज्म तो यूरेशिया में फैला ही। आगे चलकर इसाईयत व इस्लाम दुनिया के बड़े हिस्से में फैले और हम अपने ही देश को अखण्ड नहीं रख पा, हर मामले में संकुचित नजरिये के चलते।
अबसे भी हम यदि हिन्दुत्व व हिंदुवाद का हठ छोड़कर 'वसुधैव कुटम्बकम' तथा मानवधर्म (जिसे भगवान कृष्ण भागवत धर्म कहते हैं) की व्यापक मौलिक युक्ति अपना सकें तो बहुत शीघ्र हम पूरी विश्व मानवता को अपने आगोश में ले सकते हैं। दुनियाभर की मजहबी व अन्य संकीर्णताओं के सामने इस बडी़ लकीर को  विश्व मानवता जैसे जैसे समझेगी अपनाती जायेगी। अभी तो कुछ कुछ ओबामा को हम समझा पा रहे हैं। क्या पता कल पूरी दुनिया समझ ले! पर इस मौलिक दृष्टि को पहले हम तो कुछ ठीकठाक समझ लें। फिर विवेकानंद तक रुकने से काम नहीं चलने वालाए धर्म व अध्यात्म के बहते नीर में बहुत सी बातें जुड़ती भी तो जा रही हैं। इस प्रवाह को रोकने की सामर्थ्य तो दुनिया की किसी राजनीति में नहीं है, किसी नेता के UNO को लिखा पत्र रोक पायेगा क्या?
हिन्दुत्वादियों के प्रति
अपने प्रधानमंत्री मोदीजी देश के भीतर भीतर व बाहर भारतीय संस्कृति, योग व अध्यात्म की बहुत अच्छी ब्रान्डिंग कर रहे हैं, छवि प्रस्तुत कर रहे हैं, यह बात सन्देह से परे है। पर इनके प्रति देश-दुनिया के मन में हिन्दूवाद का जो पूर्वाग्रह चस्पा है वह इन सही बातों को भी समझने-सहेजने में दुनिया को कुछ असहज व अतिसतर्क किए रहती है। तो क्या लेबल हटाकर हम अपनी पहचान खो दें? नहीं। हम इन प्रयार्सों पर भारतराष्ट्र व विश्वमानवता की ब्रान्डिंग कर इस पूर्वाग्रह को धो सकते हैं। सांप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे।
वैसे भी यह तो सर्वविदित है कि ‘हिन्दू’ शब्द भारतीय मूल का नहीं है। यह उन पारसियों द्वारा सिन्धुनदी के आगे भारतीय प्रायद्वीप के लोगों के लिए एक सदी ईसापूर्व अपनी सुविधानुसार प्रयुक्त शब्द है जो ‘स’ को ‘ह’ बोलते रहे हैं ठीक वैसे ही जैसे यूनानी व पश्चिमी दुनिया के लोग सिन्धु नदी को ‘इन्डस’ तथा भारत को ‘इन्डिया’ कहकर काम चलाते रहे हैं। ऐसे अशुद्ध् विदेशी शब्द से हम अपना परिचय देते रहेंगे तो हम गौरवशाली हो पायेंगे क्या और कैसे व कैसी प्रगति करेंगे? बेहतर है कि मौलिक रूप से हम अपना परिचय ‘भारतीय’ रखें और मानव या भागवत धर्मी बनें
अनेक लोग ‘सनातन धर्म’ की बात करते हैं। पर यह शब्द प्रकृति के मूल व स्थिर गुणधर्म का बोधक है। सनातन शब्द उन गुणों का वाचक है जो चिरकाल से यथावत व रूढि़.गत हैं, विधि से प्रथा अधिक बलवती है’ ऐसी धारणा की पोषक है। इनके लिए तो स्वर्गलोक धुवतारे के ऊपर है तो है; जबतक अपना रक्तपुत्र चिता को मुखाग्नि नहीं देता, मुक्ति नहीं हो सकती तो नहीं हो सकती। इनमें सुधार, समन्वय व परिवर्तन की कोई गुंजाइश नहीं। पर मनुष्य तो प्रगतिशील प्राणी है! अतः भगवान कृष्ण ने भी सनातन धर्म को जड़ प्रकृति के लिए ही उपयुक्त मानते हुए भागवत शास्त्र व गीता के माध्यम से मनुष्य के लिए भागवत धर्म का प्रवर्तन किया। कृष्ण की ऐतिहासिकता भले ही स्थापित न हो पर भागवत शास्त्र और गीता हैं तो उनके रचयिता, उनके प्रतिपादक स्वतः स्थापित हो जाते हैं किसी भी नामरूप में।
मूर्तिपूजाधमाधमा
शास्त्रों (यथा महानिर्वाण तन्त्र) में कहा गया है-
उत्तमो ब्रह्म सद्भावो  मध्यमा ध्यान धारणा
जपस्तुतिस्यादधमा मूर्तिपूजाधमाधमा (बहिर्पूजाधमाधमा)

यहां अधम या अधमाधम शब्द निकृष्ट के अर्थ में नहीं समझा जाना चाहिए। छोटा बच्चा अधम व चंचल होता है, हरसमय उछल-कूद करता रहता है। किंडरगार्डेन में उसे नयी बातें खेलकूद के द्वारा अपेक्षाकृत आसानी से सिखायी जाती हैं। साधना की प्रारम्भ्कि अवस्था में साधक का मन व शरीर भी छोटे बच्चे की भांति अधम व चंचल होता है। मूर्ति, चित्र, प्रतीक, जपस्तुति आदि का सीमित उपयोग मन व शरीर को एकाग्र करने हेतु किया जाता है। फिर उन्नत दर्जे के साधक ध्यान धारणा व ब्रह्म सद्भाव में सीधे अभ्यास की ओर प्रवृत्त हो सकते हैं जो और अच्छी बात है। आज विज्ञान व टेक्नालोजी के बीच विकसित व्यक्ति के लिए मूर्तिपूजा उतना वांछनीय भी नहीं है। मूर्तिपूजा बहुदेववाद के साथ संयुक्त होकर मन की चंचलता को बढ़ा भी देती है। अतः इसका सीमित प्रयोग ही वांछनीय है।
इसी प्रसंग में संत रामकृष्ण परमहंस के जीवन की घटना है। रामकृष्णजी ने अपने गुरू तोतापुरीजी से शिकायत की कि अपनी आध्यात्मिक साधना के दौरान सविकल्प समाधि से आगे निर्विकल्प समाधि में प्रतिष्ठित होने का जब वे प्रयास करते हैं तो काली मां बीच में प्रकट होकर उनका ध्यान भंग कर देती हैं। ऐसा ध्यान में बार-बार होता है। इसपर तोतापुरीजी ने सुझाया कि अगली बार जब ध्यान में मां प्रकट हों तो उसी ध्यान में तलवार से मां का सिर धड़ से अलग कर देना। रामकृष्ण जी ने अपने गुरू के आदेश का पालन किया, निर्विकल्प समाधि में प्रतिष्ठित हो परमहंस हो गये। बहुदेववाद के साथ मूर्तिपूजा किस प्रकार साधक की अग्रगति में बाधक बनती है यह इस बात का प्रतिष्ठित उदाहरण है। आज जिस तरह से मूर्तिपूजा बढ़ी है, इसका राजनीतिकरण हुआ है तथा क्षेत्रीय देवी-देवता अब देशव्यापी होते गए हैं, इन्हें मर्यादा में रखना आवश्यक है।