Tuesday 19 May 2020

#विपरीत पलायन के सबब और सबक #


लोकल तो वोकल रहा ही है, जनाब आवाज़ सुनिए तो...............
कोविड-19 के दौर में पूरी व्यवस्था भारी तनाव के दौर से गुज़र रही है। इसमें प्रवासी मजदूर तो सबसे ज्यादा तनाव और किंकर्तव्यविमूढ़ता के शिकार हुए हैं। इन लगभग आठ करोड़ मजदूरों और इनके परिवारों की जो दुर्गति देखने में  आयी है वह आज़ाद भारत में आमजन की दुर्दशा और बेबसी का सबसे बड़ा उदाहरण है। यद्यपि 1942-43 के अकाल के दौरान बंगाल में तथा 1947 के विभाजन में जितनी आकस्मिक मौतें हुई उनसे इस दुर्दशा की तुलना नहीं की जा सकती, आज के दौर में मौतें उतनी नहीं होतीं, लेकिन बेबसी, बेरोजगारी, गरीबी और  सबकुछ रहते हुए भी भूख की विद्यमानता की मुसीबतें भी अभूतपूर्व है। अफसोस की बात तो यह है यह स्थिति आसानी से टाली जा सकती थी। पर राज्यों सरकार की आपसी खींचतान व चालबाजियाँ, अनेक राज्य सरकारों की केंद्र सरकार से खींचतान, मंत्रालयों में तालमेल की कमी (यथा रेल और बसों की व्यवस्था में समन्वय की कमी), कहीं-कहीं सरकारी अधिकारियों में भी खींचतान इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है। 1942-43 के अकाल में खाद्यान्नों की कमी नहीं थी पर वितरण की अकुशलता और विसंगति के चलते करीब 30 लाख लोग भूख व कुपोषण से  मरे थे, जैसा कि नोबल अर्थशास्त्री डॉ अमर्त्यसेन का विश्व-चर्चित अध्ययन बताता है। आज की प्रवासी मजदूरों की बदहाली के लिए भी राजनीतिक खींचतान और निर्णयहीनता ने कुशल व प्रतिबद्ध प्रशासन को बेकार साबित किया।  यह स्थिति आगे के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन हेतु सरकारों के लिए बहुत बड़ा सबक भी है।
इस खींचतान का नतीजा है कि प्रवासी मजदूरों के मामले में काफी विलंब हुआ, इनका धैर्य जवाब दे गया। इससे कोरोना संक्रमण को और बढ़ावा ही मिला है—पहले जमाती, फिर शराबी, और साथ में इन प्रवासी मजदूरों के मार्फत। जो मजदूर परिवार सहित फंसे हुए थे उन्हें भेजने में तात्कालिक प्राथमिकता देनी चाहिए थी। इससे भीड़ एकत्रण से बचा जा सकता था। ऐसी राष्ट्रीय आपदा के समय में राज्यों सरकारों के स्वयं निर्णय लेने के अधिकार को सलाह देने तक सीमित कर देना चाहिए। केंद्र सरकार उनको उचित समझे तो विचारे और माने अन्यथा नहीं। राज्यों सरकारों व स्थानीय प्रशासन को केंद्र के अनुशासन को तत्काल पालन की बाध्यता होनी चाहिए। मैंने तो 23 मार्च को ही यह बात बल देकर प्रचारित की थी। मीडिया भी अब आपसी खींचतान से हुए अनर्थ के मुद्दे पर मुखर होने लगा है।  
मंत्रालयों, विशेषकर,केंद्रीय मंत्रालयों को भावनाओं में बहने तथा भाग्यवादी व अति आशावादी मनोवृत्ति को छोड़कर जमीनी यथार्थ की युक्तिपूर्ण समझ विकसित करनी होगी। मसलन यदि इन लोगों ने समय रहते मजदूरों की विवशताओं को समझ लिया होता तो प्रवासी मजदूरों की यह दुर्दशा और इनको लेकर ऐसी अव्यवस्था से बचा जा सकता था। मार्च के दूसरे सप्ताह में होली त्योहार खत्म कर बहुतेरे मजदूर अपने गावों से बड़े शहरों में पहुंचे, दो-चार दिन की मजदूरी कमाए नहीं कि लॉकडाऊन चालू हो गया। मालिकों ने हाथ खड़े कर दिये कि कारोबार बंद हैं तो इन सबके लिए बिजली, आवास का भार कौन वहन करेगा। केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों व प्रशासन पर कुछ ज्यादा ही भरोसा किया। बहुत ऊंचा सोचने की हवा-हवाई मानसिकता जमीनी हकीकत से दूर रही।  जमीनी हकीकत से वाकिफ होना ही काफी नहीं है, देखने-सोचने की अभिमुखता भी मायने रखती है। नतीजा मजदूर परिवार अप्रत्याशित बदहाली का शिकार हो जैसे तैसे विपरीत पलायन को बाध्य हुए। भूख कोरोना पर हावी पड़ा। सरकारी तंत्र और शिष्ट समाज की तक्नोलोजी के उपयोग की समझ खोखली और बौनी साबित हुई है। अब यह दुर्दशा इनके लिए ऐसा सबक है कि इन्हें अब वापस उद्योगों में लौटने से पहले सैकड़ों बार सोचना पड़ेगा। यह तय है कि अधिकांश नहीं लौटेंगे। यह पलायनशील वर्ग युवा श्रमशक्ति का बड़ा हिस्सा है। इनको स्थानीय स्तर पर ही रोजगार और पुनर्वासन देना है।
 यह विशेष बात है कि केंद्र सरकार ने मोदीजी के नेतृत्व में लोकल को वोकल बनाने का आह्वान किया है। स्वयं को आत्म-निर्भर बनाना होगा। इन बातों को किस रूप में लिया जाय? लोकल तो पहले से ही वोकल रहा है; राजनेताओं की गाली और उनके इशारे पर पुलिस की लाठी खाकर भी वोकल रहा है। लोकल वॉयस को लंबे समय से महज राजनीतिक नज़रिये से देखने की प्रवृत्ति रही है। चाहे दक्षिणपंथी हों या वामपंथी या सतही परंपरागत समाजवादी—सभी लोकल वॉयस को विभाजनकारी, दक़ियानूसी, विकास व विज्ञान विरोधी, देशद्रोही मानकर दबाते रहे हैं, जबतक कि लोकल वॉयस को स्वीकार करना इनकी राजनीतिक मजबूरी न बन जाए। क्या माना जाय कि स्थानीय समस्याओं की राष्ट्रवाद की आड़ में उपेक्षा नहीं होगी, स्थानीय अपेक्षाओं को केवल राजनीतिक नज़रिये से नहीं देखा जाएगा? हालांकि राजनीतिक उपेक्षा के बावजूद प्रशासनिक अधिकारियों का बड़ा हिस्सा लोकल वॉयस को सपोर्ट करता रहा है। राज्य सरकारें वापस लौटे मजदूरों के रोजगार व पुनर्वासन हेतु  निश्चित ही कुछ योजनाएँ चलाएंगी। बाहर से कंपनियों और उद्यमियों को बुलाया जा रहा है। अधिकांश श्रम कानून एक हज़ार दिनों के लिए प्रभावहीन बना दिये गए हैं। मजदूरों के विद्यमान कौशल की पहिचान और कौशल पुनर्विकास की घोषणाएँ की गयी हैं। पर किसी क्षेत्र को सिर्फ सरकारी योजनाओं और नौकशाही के भरोसे न आत्म-निर्भर बनाया जा सकता है, न विकसित किया जा सकता है।
लोकल सही अर्थों में वोकल हो—यह सुनिश्चित करना होगा। यह सरकारी मदद या खैरात मात्र से संभव नहीं है। स्थानीय स्तर पर आत्मविश्वास, स्वाभिमान और सामर्थ्य उत्पन्न करना होगा।  इसी आत्मविश्वास, स्वाभिमान और सामर्थ्य को उत्पन्न करने व बढ़ाने के लिए उपेक्षित और कमजोर क्षेत्रों को पहिचान प्रदान करने हेतु भोजपुरी, बुंदेलखंड, विदर्भ, सौराष्ट्र, आदि की मांग की जाती रही है। इन बातों की उपेक्षा का नतीजा रहा है—क्षेत्रीय असंतुलन और युवा श्रमशक्ति का रोजी-रोटी के लिए पलायन।
भाषा के आधार पर 1956 के राज्यों के पुनर्गठन को निरस्त कर सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक आधार पर भारत में राज्यों का नवगठन आवश्यक है। प्रउत(प्रगतिशील उपयोग तत्व) विचारधारा के अनुसार भारत को 44 समाजों में गठित कर विकासगत नियोजन करने की आवश्यकता है। इसी को लेकर समाज आंदोलन है। अबतक देश का दुर्भाग्य रहा है कि क्षेत्रीय अपेक्षाओं को राजनीति और वोट के नज़रिये से ही देखा गया है। जहां ढेर सारी हिंसा हुई, नए राज्य उत्तराखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना गठित कर दिये गए। वोट व दबाव की राजनीति वाली यह मानसिकता व्यवस्था व अनुशासन के लिए ठीक नहीं है। लोकतन्त्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। क्या केंद्र पहले की उपरोक्त मनोवृत्ति में परिवर्तन करेगा और लोकल को वोकल बनाने की स्वघोषित  नीति के प्रति गंभीर होगा? 
स्थानीय स्तर पर उचित, प्रभावी व पर्याप्त रोजगार का सृजन रातोरात संभव तो नहीं होगा। बाहर की कंपनियों और बाज़ार छोड़कर भागने में निपुण वित्तीय संस्थागत निवेशकों (एफ आई आई) के भरोसे रहना भी तो ठीक नहीं। शुरुआत  में स्थानीय बाज़ार में श्रमिकों की आपूर्ति अधिक होने के चलते इनकी सौदेबाजी स्थिति कमजोर हो सकती है, परिश्रमिक दरें गिर सकती हैं। श्रम क़ानूनों के निष्प्रभावी रहने से इनके शोषण की प्रवृत्ति बढ़ सकती है। इसके लिए शीघ्र समाधान अपनाना होगा। गाँव व ब्लॉक स्तर पर विकेंद्रित नियोजन अपनाना होगा। निर्माण, औद्योगिक उत्पादन, कृषि उपज के उत्पादन, प्रसंस्करण व विपणन, डेरी, सेवाओं आदि में समन्वित सहकारिता के माध्यम से इन लोगों को इकाइयों के संचालन में शामिल करना एक शीघ्र प्रभावी उपाय है। केंद्र सरकार ने छोटे कारोबारों व किसानो के लिए ढेरों योजनाएँ घोषित की हैं। समन्वित सहकारिता के द्वारा इनका समुचित लाभ लिया जा सकता है। सरकारों को भी चाहिए कि समन्वित सहकारी समितियों के प्रोत्साहन हेतु तथा इनके साथ ही स्वयं सहायता समूहों को सहायता व ऋण प्रदायन में प्राथमिकता देने हेतु भी स्कीम घोषित करना चाहिए।
भारत में अनौपचारिक सहकारिता के तौर पर स्वयं सहायता समूह अच्छा कार्य किए हैं। अब इनसे आगे बढ़कर  समन्वित सहकारिता विकसित करने की जरूरत है। इसमें  राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों का प्रतिनिधित्व नहीं होगा जैसा कभी अमुल में किया गया था। सरकार इसमें तकनीकी सहायता, ऑडिट व प्रोत्साहनकारी भूमिका रखेगी। नियमों के उल्लंघन व अधिसंख्य सदस्यों द्वारा कुप्रबंध की शिकायत पर सरकार हस्तक्षेप कर सकती है। अधिकांश जोतें पहले से ही छोटी हैं। विपरीत पलायन के चलते इनपर जनभार बढ़ेगा। इनको कुशल बनाने हेतु किसान सहकारी खेती अपना सकते हैं। पर व्यवस्था देनी होगी कि किसान उत्पादन समिति का  सदस्य रहेगा पर उसका अपनी जमीन पर व्यक्तिगत मालिकाना हक बना रहेगा। समिति केवल भूमि के प्रयोग का अधिकार रखेगी।
कृषि उपज का  उद्योगों की भांति मूल्य निर्धारण करें। समन्वित सहकारिता के माध्यम से इनका विपणन, भंडारण व स्थानांतरण का उपाय करें। यह नहीं भूलना चाहिए कि डेन्मार्क, हालैण्ड, इसराइल, जर्मनी आदि यूरोप के किसानों की मानसिकता भी भारत के किसानों से ज्यादा भिन्न नहीं है। पर उन्हें जब  लगा कि कंपनियों का वर्चस्व उन्हें बर्बाद कर देगा तो उन्होंने सहकारी खेती और विपणन को उत्साह के साथ अपनाया।

Wednesday 13 May 2020

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा श्रम कानूनों में सुधार—एक समीक्षा


उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा श्रम कानूनों में सुधार—एक समीक्षा
लॉकडाउन के कारण प्रदेश में औद्योगिक और आर्थिक गतिविधियां बहुत ज्यादा प्रभावित हुई हैं।  सभी उद्योग बंद रहे. ऐसे में औद्योगिक क्षेत्र की ग्रोथ को प्रोत्साहित करना बहुत महत्वपूर्ण है। कोरोना आपदा (COVID-19) के बाद आर्थिक स्थिति को सुधारने, बुरी तरह प्रभावित उद्योगों को मदद देने और रोजगार की चुनौती से निपटने के लिए यूपी सरकार ने 7 मई को श्रम कानूनों में सुधार को लेकर अगले 1000 दिन के लिए बड़े ऐलान किए हैं।
उत्तर प्रदेश सरकार ने इसके लिए उत्तर प्रदेश टेम्परेरी एक्जेंप्शन फ्रोम सर्टेन लेबर लॉज ऑर्डिनन्स 2020 (उत्तर प्रदेश चुनिंदा श्रम कानूनों से अस्थाई छूट का अध्यादेश 2020) को मंजूरी प्रदान कर दी है। 38 में से 35 क़ानूनों को इस अवधि के लिए प्रभावहीन कर दिया है।
1. संशोधन के बाद यूपी में अब केवल बिल्डिंग एंड अदर कन्स्ट्रकशन वर्कर्स एक्ट,1996, वर्कमेन कंपेनसेशन एक्ट 1923,  और बंधुवा मजदूर एक्ट 1976 का पालन करना होगा।
2. उद्योगों पर अब 'पेमेंट ऑफ वेजेज एक्ट 1936' की धारा 5 ही लागू होगी।
3. श्रम कानून में बाल मजदूरी व महिला मजदूरों से संबंधित प्रावधानों को बरकरार रखा गया है।
4. श्रमिक संघों से संबंधित सभी महत्वपूर्ण कानून, काम के विवादों को निपटाने, काम करने की स्थिति, अनुबंध आदि को मौजूदा और नए कारखानों के लिए तीन साल तक निलंबित रखा जाएगा. इस दौरान प्रतिस्थानों में इंस्पेक्टर की भूमिका खत्म कर दी गयी है ।
5. कोई कर्मचारी किसी भी कारखाने में प्रति दिन 12 घंटे और सप्ताह में 72 घंटे से ज्यादा काम नहीं करेगा।  पहले यह अवधि एक  दिन में 8 घंटे और सप्ताह में 48 घंटे थी।
6. 12 घंटे की शिफ्ट के दौरान 6 घंटे के बाद 30 मिनट का ब्रेक दिया जाएगा।
7. 12 घंटे की शिफ्ट करने के संबंध में कर्मचारी की मजदूरी दरों के अनुपातिक में होगी। यानी अगर किसी मजदूर की आठ घंटे की 160 रुपये है तो उसे 12 घंटे के 240 रुपये दिए जाएंगे।  पहले ओवर टाइम करने पर प्रतिघंटे सैलरी के हिसाब से दोगुनी सैलरी मिलती थी।
            इन उपायों को लागू करने के पीछे मंशा यह भी बताई गयी है कि इससे नियोक्ताओं को श्रमिकों को रखने या निकालने, भुगतान आदि में ज्यादा सहूलियत मिलेगी। बाहर से इकाइयों को लाने तथा नये उद्यमों को स्थापित करने में आसानी होगी।
            पर ये उपाय अनेक जटिलतायेँ उत्पन्न कर सकती हैं:
1) आशंका है कि उद्योगों को जांच और निरीक्षण से छूट देने पर कर्मचारियों का शोषण बढ़ेगा। इंस्पेक्टर राज हटाना तो अच्छी बात है पर उद्यमी और श्रमिक के ऊपर कानूनी अंकुश में संतुलन होना जरूरी है। एक को खुली छूट देना उचित तो नहीं है। इसके दुरुपयोग की जांच व नियंत्रण कैसे होगा।
2) ओवरटाइम समाप्त होने से नियोक्ता अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुरूप कुछ ही श्रमिकों से अधिक काम ले सकेगा।  इससे रोजगार के अवसर कैसे बढ़ेंगे? ओवरटाइम दुगुने के स्थान  पर 50 या कम से कम 25 प्रतिशत रखना चाहिए।

3) 35 श्रम कानून ठप करने से यही संकेत मिल रहा है कि सरकार इन कानूनों को उद्योगों के  विकास में बाधक मान रही है। ऐसा है तो सात साल से केंद्र में सत्तासीन सरकार को इन क़ानूनों को बहुत पहले ही बदल देना था। पिछले साल से श्रम सुधारों को लेकर तीन संहिताएं संसद में लंबित हैं। 

प्रोफेसर आर पी सिंह,
वाणिज्य विभाग,
गोरखपुर विश्वविद्यालय
       E-mail: rp_singh20@rediffmail.com
                                                                        Contact : 9935541965

Sunday 10 May 2020

#कोरोना सुधारने पर उतारू है और केंद्र बिगाड़ने पर#


चालीस दिनों की बंदी के बाद मदिरा की दुकानें खुलने पर अत्यधिक भीड़ होगी, यह अनुमान किसे नहीं था। पर विभिन्न शहरों में शराब के लिए लॉकडाउन की धज्जियां उड़ीं, प्रशासन की कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं। जब चालीस दिन में कोरोना के रास्ते शराब की आदत छुड़वा ही दिये थे तो फिर अचानक उल्टा कदम उठाने की जरूरत ही नहीं थी। कोरोना सुधारने पर उतारू है और बात-बात में संस्कृति और संस्कारों की दुहाई देने वाली केंद्र सरकार सब गुड़-गोबर करने पर तुली है। कोरोना संकट ने नशाबंदी को मजबूर किया और सरकार ने हटा दिया। कोरोना संकट ने  सब कुछ ऑनलाइन करने को बाध्य किया, पर सरकार है कि कहीं मजदूरों, तो कहीं नशासिद्धों (अगर नशेड़ी,बेवड़ा कहने से बचना चाहें तो) की, कहीं गरीब बैंक ग्राहकों की लाइनें लगवाने पर तुली है।

यह भी नहीं सोचा कि उन राज्यों का क्या जिनके यहाँ नशाबंदी लागू है। क्या इन सरकारों को लॉकडाउन से नुकसान नहीं हुआ है, या कि यहाँ नशाबंदी खत्म की जाएगी! केंद्र को चाहिए था कि भले ही राज्यों के राजस्व नुकसान (जो अलग अलग राज्यों में 15-30 % माना जा रहा है) की भरपाई घाटे का  बजट बनाकर, नये  नोट जारी करके करते, लेकिन शराब व पान मसाले की बिक्री पुनः शुरू तो बिलकुल नहीं करना चाहिए था। इसकी सामाजिक-आर्थिक लागत बहुत ज्यादा है, इसके बदले में भारी मंदी के काल में मंहगाई का स्वागत करने में कोई हर्ज़ नहीं है।  अभी भी गुंजाइश है। भले ही चालीस दिन पुनः लॉकडाउन करना पड़े, पुरानी स्थिति फिर से बहाल कर दें।  अब युद्ध कालीन सामरिक और औषधीय प्रयोजन को छोड़ कर मंदिरा-मसाला हमेशा के लिए प्रतिबंधित ही रखें तो बेहतर। सच्चे लोकतन्त्र और शिष्ट समाज के निर्माण के लिए भी यह पूर्व शर्त है और मानवता के इतिहास का सर्वोत्तम अवसर है कि नशाबंदी एकसाथ पूरे देश में बहाल हो। इस अवसर को चूकना नहीं चाहिए।  
अब क्या है कि गांधीजी को तो नशे से परहेज था पर दलीय नेताओं को नहीं। आज भी एनडीए के गाँधियों को नशे से प्रायः परहेज है पर अधिसंख्य राजनेताओं को तो बिलकुल नहीं। दोनों तरफ से काफी समानतायें रही हैं। चीन पर विश्वास करना और धोखा खाना दोनों की फितरत रही है। कुछ भी हो मेहरबानी ही करनी है तो असली मज़बूरों-मजदूरों पर करें, नशे के मज़बूरों पर नहीं। धनिकों व नौकरशाही पर नियंत्रण बहुत आवश्यक है। प्रवासी मजदूरों की अधिकांश समस्याएँ इनके उदासीन व सहयोग के दिखावटी रवैये के चलते पैदा हुई हैं।
हवाई यात्रा का आरक्षण हो या रेलवे का, सरकार डाइनेमिक फेयर प्राइसिंग का उपयोग खूब करती है। फिर यहाँ MHA और राज्य सरकारें कैसे भूल गईं कि मदिरा की रिवर्स (उल्टी) डाइनैमिक प्राइसिंग होनी चाहिए थी? मसलन, चार गुने दाम से शुरू करके हर दो दिन पर बीस फीसदी कम करते हुए तीन सप्ताह में सत्तर प्रतिशत वृद्धि के स्तर पर ला सकते थे। आय काफी बढ़ती और उचित नियोजन के साथ भीड़ नियंत्रित रहती, ठेकों में स्टॉक की कमी भी नहीं होती। यह तो माननीय सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया है कि आवश्यक सामानों की तरह शराब की भी ऑनलाइन ऑर्डर और होम डेलीवेरी की व्यवस्था पर विचार करें। आरोग्य सेतु जैसे ऐप पर इ-पास का बटन हो सकता है तो ऑनलाइन सप्लाइ का भी उपाय किया जा सकता है। पर यहाँ तो गंभीर नियोजन और तैयारी की नितांत आवश्यकता है। सलाहकारों का दिमाग जितना रुपया जुटाने पर है, उतना ही व्यवस्था बनाने पर भी होना चाहिए। रुपयों का लालच ऐसा कि निर्णयन व्यवस्था को लकवा मार गया। सारे किए पर बार-बार पानी फिर रहा है, कभी इस बहाने तो कभी उस बहाने। लॉकडाउन को तो अब शासन-व्यवस्था ने ही अप्रासंगिक बना दिया है। अब ये केवल आम निरीह जन के लिए ही माने रखता है।
लॉकडाउन एक्जिट की अपेक्षित रणनीति 
 जब तक प्रभावी वैक्सीनेशन की व्यवस्था न हो जाय तबतक:
1) शराब व पान मसाले की बिक्री युद्ध काल सामरिक और औषधीय प्रयोजन को छोड़ कर पुनः प्रतिबंधित करें और हमेशा के लिए ।
2) लॉकडाउन 30 जून तक तो ले ही जाएँ पर कर्फ्यु की तरह नहीं बल्कि अधिक समझदारी के साथ ताकि आर्थिक कुशलता को पुनः निम्नवत प्राप्त किया जा सके। लॉकडाउन के मानदंडों के उल्लंघन पर जेल के बजाय आर्थिक दंड/प्रतिबंध को वरीयता मिलनी चाहिए। लॉकडाउन को डिस्टेन्स रेग्युलेशन या डिस्टेन्सिंग में बदलें ताकि देश कोरोना नियंत्रण के साथ लंबे समय तक जूझ सके।   
3) सभी संस्थाओं में साप्ताहिक व संस्थागत अवकाश भंग करें। जहां कर्मचारियों की संख्या पाँच से अधिक है 50 प्रतिशत कर्मचारियों से संस्थानों को चलाएं बिना व्यक्तिगत अवकाशों में कटौती या कम्पाऊंडिंग के।
4) सभी बाज़ार (माल सहित) की इकाइयां भी आड-ईवन के तहत दो शिफ़्टों में 50 प्रतिशत कर्मचारियों से बिना साप्ताहिक व संस्थागत अवकाश के चलाएं । पर बिना व्यक्तिगत अवकाशों में कटौती या कम्पाऊंडिंग के। दो शिफ्ट यथा: 9 से 15 बजे तक तथा 14 से 20 बजे तक रख सकते हैं। 
5) देश के भीतर गैर स्थानीय परिवहन यथा रेल, बसें, विमान, पोत सभी 33 से 50 प्रतिशत की क्षमता पर केवल सामान्य व तात्कालिक आरक्षण व किराए के समायोजन के साथ चलायेँ।
6) स्थानीय परिवहन यथा बसें, ऑटो आदि 33 से 50 प्रतिशत की क्षमता पर किराए के समायोजन के साथ चलायेँ।
7) पार्क, सिनेमा हाल, खेल आयोजन, विद्यालय आदि बंद ही रखें। चार-छः माह का सत्र विलंब कोई नई बात नहीं है। बहुत बार हुआ है। आगे भरपाई आसानी से हो जाएगी। इस अंतर्राष्ट्रीय त्रासदी में पाठ्यक्रम पिछड़ने की घबड़ाहट पालने और जबरिया कौशल प्रदर्शन उचित नहीं। ऑनलाइन शिक्षा की अपनी सीमाएं हैं। यह पूरा विकल्प नहीं है।
8) सार्वजनिक स्थल पर 20 से अधिक के एकत्रित होने पर प्रतिबन्ध रखें।
9) जहां जिस स्थान, भवन या आवास में कोरोना के मामले हैं वहीं रेडजोन लागू करने का विचार ज्यादा उचित है।
10) संभावित व्यक्तियों की बड़े पैमाने पर टेस्टिंग जारी रखें।
11) जो समझदार हैं वे स्वतः ही घरों से कम निकलें, बाहर सोशल डिस्टेन्स रेग्युलेशन, मास्क व स्वच्छता के मानदंडों का पालन।
12) बेकारी को दूर करने हेतु स्थानीय रोजगार बढ़ाएं। समन्वित सहकारिता के द्वारा शोषण की प्रवृत्तियों को काबू में रखें। इन सबके लिए पंचायती राज का राजनीतिक उपकरण पर्याप्त नहीं है।
13) कृषि उपज का  उद्योगों की भांति मूल्य निर्धारण करें। समन्वित सहकारिता के माध्यम से इनका विपणन, भंडारण व स्थानांतरण का उपाय करें। छोटी जोतें कुशल बनाने हेतु किसान सहकारी खेती अपना सकते हैं। पर व्यवस्था देनी होगी कि किसान उत्पादन समिति का  सदस्य रहेगा पर उसका अपनी जमीन पर व्यक्तिगत मालिकाना हक बना रहेगा। समिति केवल भूमि के प्रयोग का अधिकार रखेगी। यह नहीं भूलना चाहिए कि डेन्मार्क, हालैण्ड, इसराइल, जर्मनी आदि यूरोप के किसानों की मानसिकता भी भारत के किसानों से ज्यादा भिन्न नहीं है। पर उन्हें जब  लगा कि कंपनियों का वर्चस्व उन्हें बर्बाद कर देगा तो उन्होंने सहकारी खेती और विपणन को उत्साह के साथ अपनाया।
            भारत में अनौपचारिक सहकारिता के तौर पर स्वयं सहायता समूह अच्छा कार्य किए हैं। अब इनको समन्वित सहकारिता के रूप में विकसित करने की जरूरत है। इसमें  राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों का प्रतिनिधित्व नहीं होगा जैसा कभी अमुल में किया गया था। सरकार इसमें तकनीकी सहायता, ऑडिट व प्रोत्साहनकारी भूमिका रखेगी। नियमों के उल्लंघन व अधिसंख्य सदस्यों द्वारा कुप्रबंध की शिकायत पर सरकार हस्तक्षेप कर सकती है। 

प्रोफेसर आर पी सिंह,
वाणिज्य विभाग,
गोरखपुर विश्वविद्यालय
E-mail: rp_singh20@rediffmail.com
       Contact : 9935541965

Saturday 9 May 2020

EXPLORING THE ECONOMY AFTER THE NEW PANDEMIC

The pestilence of the novel Corona (Covid-19) virus has created unprecedented and strange complications before the world by stalling everything. It is the most complicated and perplexing attack on human existence in the human history. The world will not remain the same after control of this epidemic; what will be the nature of it, next?—This natural question is inherent in many minds and brains. This epidemic is having some positive benefits also. Pollution has decreased considerably, nature has had an unprecedented chance to be recuperate. Governments and societies are forced to learn and implement many things very speedily. But, because of this, there have been complications before the world, including India, which are going to have far-reaching implications. On the one hand, the neglect and difficulties of the laboring masses have increased, on the other hand, the danger of domination of capitalism and orthodoxy has increased.
Economists of the world had expressed fears of recession since the last months of 2019. The corona crisis is adding salt to the sore. Now, the IMF is also saying that this slowdown is going to be more intense than the Great Depression of 1930. It is reeling both developed and developing nations under its grip. CMIE reported on April 7th that total unemployment in India has gone up to 23.4 per cent while urban unemployment is 30.9 per cent.
Based on the study of the business cycles of Shri Prabhat Ranjan Sarkar and American Professor of Indian Origin, Ravi Batra, it can be said that starting from 2019-20, this great depression will run for six years (in all social, economic, mental spheres) and then from 2029-30 to 2036, there will be a period of inflation and great war. (The Downfall of Capitalism and Communism, 1978 and The Great Depression of 1990, 1987)  The higher the intensity of these fluctuations, the greater the distress and ruination of the people. It’s detailed understanding will require separate elaboration. These fluctuations can be lightened and their implications can be greatly reduced, with a real combination of egalitarian tendencies with a democratic, universal, science and strategic world government, as the PROUT ideology proposes. The global system that has been going on so far is becoming irrelevant. The WHO, the IMF, the World Bank and even the UN, have proved to be very weak in this ongoing capitalist order. 'PROUT' is Progressive Utilization Theory, a universal vision that differs from the extremes of capitalism and communism and as a coordinated ideology of local mass development.   
All are familiar with the recent distress of daily wage labourers particularly in India, such as those who had to flee, due to the immediate crisis and possible apprehension of deprivation of livelihood and basic amenities from metros like Delhi, Mumbai, etc. In this exodus, the central government's action plan, the working of the Delhi government and the inability and non-cooperation of the owners of factories and institutions — all are under question for their role, which created a major crisis of confidence among these daily wage labourers. Despite ban on large gatherings since March 16, the collection of more than 2000 Jamatis in the Markaz Nizamuddin adjoining the police station's wall till March 28 made the intelligence, actions and notice game of the governments and police questionable.  Then what about the gathering at Nanded upto third week of April and further scene!
The migrant labourers of Surat, Mumbai and some other places have been disturbed by the misery and sometimes forced for rebellion. Now, these workers will have to think a lot before they return to work. It is a big challenge to restart these factories and institutions in the absence of labourers. Although the owners are using employment agents to recall these workers, these agents were missing at the time of the exodus of these workers, were they available to help or handle then! It is believed that 40 crore daily wage labourers are going to fall into extreme poverty due to unemployment.
Now, the governments of Bihar, UP, Chhattisgarh, etc., are compelled to avail employment opportunities in their own state. But this is a long-term strategic process. The PROUT ideology has been proposing that every sector should have more and more enterprises in accordance with local resources which should be run by coordinated cooperatives. Coordinated cooperative societies are truly far more people-oriented than the prevailing cooperatives. Workers and other participants should be given ownership as shareholder beneficiaries in these societies. This will reduce the migration of workers, increase employment opportunities and create balance and prosperity in regional development. The burden of metropolitan areas and social distortions will also decrease.
As per PROUT, all medium sized producers, farmworkers, labourers, consumer supplies and business units and agriculture supporting (agrico) and agro-industries will be run by coordinated cooperatives. So far, cooperatives have been running under the control of government departments in which ruling politicians and bureaucrats maintain their direct or indirect possession, whereas the common members are unheard of. The result is inefficiency, scams and losses. Such subordinate cooperative societies have been unsuccessful. Governments in cooperatives should be confined only to the indirect positive and promotional role of 'friend, philosopher and guide'. The workers will also get dividend as shareholder in addition to salary/wages/remuneration from the cooperative society, in addition to interest and rent in proportion to capital/land. The option of coordinated cooperative farming instead of contract or corporate farming is at least appropriate for small holdings.
Public undertakings have played very good role in this pandemic all over the world. All major enterprises should be run in public control as far as possible. Keep small business privately owned.
The employment policy is that the use of resources and the level of economic activities will have to be raised enough through proper decentralized planning to ensure 100% employment in every sector. In any sector, for a balanced economy, 30-40% of total employment is required in agriculture, 20% in agro-based enterprises, 20% in agricultural support enterprises, 10-20% in non-agricultural industries, 10% in trade-commerce and 10% in white-collar activities.
In the case of pricing of agricultural produce, it is advisable to look at it as an industry. Minimum price should be guaranteed with reasonable profit and risk premium on cost. The income gap between agriculture and non-agricultural sectors needs to be reduced. There is a need to diversify yields by providing agro-based industries at the local level.
All must have a proper guarantee of five minimum needs—food, clothing, housing, education and medicare—through direct benefit transfer, minimum income and effective guarantee of employment. A policy of centralized polity and decentralized socio-economic system will have to be adopted to ensure discipline and speed in the country and the world as well.  These are the highlights of the economic policy of PROUT.
PROUT is a socio-economic philosophy, but it is also linked to the scientific and rational aspects of spirituality, yoga and tantra as the 'model of Rajadhiraja Yoga' and also neo-humanism. The Ishwar-Pranidhan (meditation), madhuvidya and meditation of yoga controls blood pressure and anxiety by reducing the curvature of the waves of the brain. Pranayama not only strengthens the lungs by improving the intake of oxygen but also revives the cells by their oxygenation. These three combined can significantly improve the potential of disease resistance. Good immunity is necessary to fight Kovid-19. It is useful for both the leaders and the public equally.  
 
Let us check a connected issue as to whether it is opportunity or challenge for India. China had become the global hub for production of all kinds of consumer and low technology goods for the past three decades. It is also called the manufacturing capital of the world. Recently, some countries in South East Asia, Indonesia, Malasia, Thailand, etc., also joined.  Today, the whole world, including America and Europe, is furious at China. Japan is covering up its business from China as an economic distance policy. There is a great opportunity for India to replace China as an economic hub. This opportunity was with India earlier also, but we could not take advantage of it. The positive mood of the world is giving India an opportunity, but we have to expedite the right preparations, otherwise we will miss again. Don't forget, Brazil, Mexico, Southeast Asia and Europe itself are also in competition.  India has got an opportunity, also getting a lot of appreciation, but the crown will come on its own well decorated in the plate, we should not be any victim of such illusion. It is in the air that many companies mainly from the USA are interested to shift their businesses to India, particularly the UP—auspicious signs have appeared.
Here,  we have to understand that despite being a communist country, China became the choice of capitalist countries because of its systemic stability (political, economic and social, at every level) and discipline. To bring about systemic stability and discipline in India, it is very important that the backdoor worship of capitalism; business of religious, communal and caste hatred and polarization; the cut throat competition for hateful supremacy under the politics of note and vote--all are stopped. But how? The narrow emotions of communal and caste /ethnic domination cannot be governed by a neutral policy of caste, creed or secularism. Scientific-temper, humanity-oriented human religion, scientific spirituality, global brotherhood and monotheism have to be taken within and outside the country as a unifying force by way of a comprehensive assertive policy. For this, the whole world, including India today, needs a complete cultural revolution with the inclusion of these elements.
If India succeeds in actualising the potential of the global hub of production, its vast young population will get great opportunities for employment and prosperity. This issue requires serious thinking and effort. This is a very favourable time to adopt the economic philosophy of PROUT. All these things re-outline the same thing — the world's problems, including India, are not going to be solved by the change of governments, the whole system has to be changed.

मद्यसिद्धों पर इतनी मेहरबानी जरूरी है क्या??

चालीस दिनों की बंदी के बाद मदिरा की दुकानें खुलने पर अत्यधिक भीड़ होगी, यह अनुमान किसे नहीं था। पर विभिन्न शहरों में शराब के लिए लॉकडाउन की धज्जियां उड़ीं, प्रशासन की कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं। जब चालीस दिन में कोरोना के रास्ते शराब की आदत छुड़वा ही दिये थे तो फिर अचानक उल्टा कदम उठाने की जरूरत ही नहीं थी।
यह भी नहीं सोचा कि उन राज्यों का क्या जिनके यहाँ नशाबंदी लागू है। क्या इन सरकारों को लॉकडाउन से नुकसान नहीं हुआ है, या कि यहाँ नशाबंदी खत्म की जाएगी! केंद्र को चाहिए था कि भले ही राज्यों के राजस्व नुकसान (जो अलग अलग राज्यों में 15-30 % माना जा रहा है) की भरपाई घाटे का  बजट बनाकर, नये  नोट जारी करके करते, लेकिन शराब व पान मसाले की बिक्री पुनः शुरू तो बिलकुल नहीं करना चाहिए था। इसकी सामाजिक-आर्थिक लागत बहुत ज्यादा है, इसके बदले में भारी मंदी के काल में मंहगाई का स्वागत करने में कोई हर्ज़ नहीं है।  अभी भी गुंजाइश है। भले ही चालीस दिन फिर लॉकडाउन करना पड़े, पुरानी स्थिति फिर से बहाल कर दें।  अब युद्ध काल और औषधीय प्रयोजन को छोड़ कर मंदिरा-मसाला हमेशा के लिए प्रतिबंधित ही रखें तो बेहतर।
अब क्या है कि गांधीजी को तो नशे से परहेज था पर दलीय नेताओं को नहीं। आज भी एनडीए के गाँधियों को नशे से प्रायः परहेज है पर अधिसंख्य राजनेताओं को तो बिलकुल नहीं। दोनों तरफ से काफी समानतायें रही हैं। चीन पर विश्वास करना और धोखा खाना दोनों की फितरत रही है। कुछ भी हो मेहरबानी ही करनी है तो असली मज़बूरों-मजदूरों पर करें, नशे के मज़बूरों पर नहीं। धनिकों व नौकरशाही पर नियंत्रण बहुत आवश्यक है। प्रवासी मजदूरों की अधिकांश समस्याएँ इनके उदासीन व सहयोग के दिखावटी रवैये के चलते पैदा हुई हैं।
हवाई यात्रा का आरक्षण हो या रेलवे का, सरकार डाइनेमिक फेयर प्राइसिंग का उपयोग खूब करती है। फिर यहाँ MHA और राज्य सरकारें कैसे भूल गईं कि मदिरा की रिवर्स (उल्टी) डाइनैमिक प्राइसिंग होनी चाहिए थी? मसलन, चार गुने दाम से शुरू करके हर दो दिन पर बीस फीसदी कम करते हुए तीन सप्ताह में सत्तर प्रतिशत वृद्धि के स्तर पर ला सकते थे। आय काफी बढ़ती और उचित नियोजन के साथ भीड़ नियंत्रित रहती, ठेकों में स्टॉक की कमी भी नहीं होती। यह तो माननीय सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया है कि आवश्यक सामानों की तरह शराब की भी ऑनलाइन ऑर्डर और होम डेलीवेरी की व्यवस्था पर विचार करें। आरोग्य सेतु जैसे ऐप पर इ-पास का बटन हो सकता है तो ऑनलाइन सप्लाइ का भी उपाय किया जा सकता है। पर यहाँ तो गंभीर नियोजन और तैयारी की नितांत आवश्यकता है। सलाहकारों का दिमाग जितना रुपया जुटाने पर है, उतना ही व्यवस्था बनाने पर भी होना चाहिए। रुपयों का लालच ऐसा कि निर्णयन व्यवस्था को लकवा मार गया। सारे किए पर बार-बार पानी फिर रहा है, कभी इस बहाने तो कभी उस बहाने। लॉकडाउन को तो अब शासन-व्यवस्था ने ही अप्रासंगिक बना दिया है। अब ये केवल आम निरीह जन के लिए ही माने रखता है।
आगे की अपेक्षित रणनीति 
 जब तक प्रभावी वैक्सीनेशन की व्यवस्था न हो जाय तबतक:
1) जो समझदार हैं वे स्वतः ही घरों से कम निकलें, बाहर सोशल डिस्टेन्स रेग्युलेशन, मास्क व स्वच्छता के मानदंडों का पालन।
2) लॉकडाउन 30 जून तक तो ले ही जाएँ पर कर्फ्यु की तरह नहीं बल्कि अधिक समझदारी के साथ ताकि आर्थिक कुशलता को पुनः निम्नवत प्राप्त किया जा सके। लॉकडाउन के मानदंडों के उल्लंघन पर जेल के बजाय आर्थिक दंड/प्रतिबंध को वरीयता मिलनी चाहिए। लॉकडाउन को डिस्टेन्स रेग्युलेशन या डिस्टेन्सिंग में बदलें ताकि देश कोरोना नियंत्रण के साथ लंबे समय तक जूझ सके।   
3) सभी संस्थाओं में साप्ताहिक व संस्थागत अवकाश भंग करें। जहां कर्मचारियों की संख्या पाँच से अधिक है 50 प्रतिशत कर्मचारियों से संस्थानों को चलाएं बिना व्यक्तिगत अवकाशों में कटौती या कम्पाऊंडिंग के।
4) सभी बाज़ार (माल सहित) की इकाइयां भी आड-ईवन के तहत दो शिफ़्टों में 50 प्रतिशत कर्मचारियों से बिना साप्ताहिक व संस्थागत अवकाश के चलाएं । पर बिना व्यक्तिगत अवकाशों में कटौती या कम्पाऊंडिंग के। दो शिफ्ट यथा: 9 से 15 बजे तक तथा 14 से 20 बजे तक रख सकते हैं। 
5) देश के भीतर गैर स्थानीय परिवहन यथा रेल, बसें, विमान, पोत सभी 33 से 50 प्रतिशत की क्षमता पर केवल सामान्य व तात्कालिक आरक्षण व किराए के समायोजन के साथ चलायेँ।
6) स्थानीय परिवहन यथा बसें, ऑटो आदि 33 से 50 प्रतिशत की क्षमता पर किराए के समायोजन के साथ चलायेँ।
7) पार्क, सिनेमा हाल, खेल आयोजन, विद्यालय आदि बंद ही रखें। चार-छः माह का सत्र विलंब कोई नई बात नहीं है। बहुत बार हुआ है। आगे भरपाई आसानी से हो जाएगी। ऑनलाइन शिक्षा की अपनी सीमाएं हैं। यह पूरा विकल्प नहीं है।
8) सार्वजनिक स्थल पर 20 से अधिक के एकत्रित होने पर प्रतिबन्ध रखें।
9) जहां जिस स्थान, भवन या आवास में कोरोना के मामले हैं वहीं रेडजोन लागू करने का विचार ज्यादा उचित है।
10) संभावित व्यक्तियों की बड़े पैमाने पर टेस्टिंग जारी रखें।
11) शराब व पान मसाले की बिक्री युद्ध काल और औषधीय प्रयोजन को छोड़ कर पुनः प्रतिबंधित करें और हमेशा के लिए ।
12) बेकारी को दूर करने हेतु स्थानीय रोजगार बढ़ाएं। समन्वित सहकारिता के द्वारा शोषण की प्रवृत्तियों को काबू में रखें। इन सबके लिए पंचायती राज का राजनीतिक उपकरण पर्याप्त नहीं है।
13) कृषि उपज का  उद्योगों की भांति मूल्य निर्धारण करें। समन्वित सहकारिता के माध्यम से इनका विपणन, भंडारण व स्थानांतरण का उपाय करें। छोटी जोतें कुशल बनाने हेतु किसान सहकारी खेती अपना सकते हैं। पर व्यवस्था देनी होगी कि किसान उत्पादन समिति का  सदस्य रहेगा पर उसका अपनी जमीन पर व्यक्तिगत मालिकाना हक बना रहेगा। समिति केवल भूमि के प्रयोग का अधिकार रखेगी। यह नहीं भूलना चाहिए कि डेन्मार्क, हालैण्ड, इसराइल, जर्मनी आदि यूरोप के किसानों की मानसिकता भी भारत के किसानों से ज्यादा भिन्न नहीं है। पर उन्हें जब  लगा कि कंपनियों का वर्चस्व उन्हें बर्बाद कर देगा तो उन्होंने सहकारी खेती और विपणन को उत्साह के साथ अपनाया।
            भारत में अनौपचारिक सहकारिता के तौर पर स्वयं सहायता समूह अच्छा कार्य किए हैं। अब इनको समन्वित सहकारिता के रूप में विकसित करने की जरूरत है। इसमें  राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों का प्रतिनिधित्व नहीं होगा जैसा कभी अमुल में किया गया था। सरकार इसमें तकनीकी सहायता, ऑडिट व प्रोत्साहनकारी भूमिका रखेगी। नियमों के उल्लंघन व अधिसंख्य सदस्यों द्वारा कुप्रबंध की शिकायत पर सरकार हस्तक्षेप कर सकती है।
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प्रोफेसर आर पी सिंह,

वाणिज्य विभाग,
गोरखपुर विश्वविद्यालय