Tuesday 19 May 2020

#विपरीत पलायन के सबब और सबक #


लोकल तो वोकल रहा ही है, जनाब आवाज़ सुनिए तो...............
कोविड-19 के दौर में पूरी व्यवस्था भारी तनाव के दौर से गुज़र रही है। इसमें प्रवासी मजदूर तो सबसे ज्यादा तनाव और किंकर्तव्यविमूढ़ता के शिकार हुए हैं। इन लगभग आठ करोड़ मजदूरों और इनके परिवारों की जो दुर्गति देखने में  आयी है वह आज़ाद भारत में आमजन की दुर्दशा और बेबसी का सबसे बड़ा उदाहरण है। यद्यपि 1942-43 के अकाल के दौरान बंगाल में तथा 1947 के विभाजन में जितनी आकस्मिक मौतें हुई उनसे इस दुर्दशा की तुलना नहीं की जा सकती, आज के दौर में मौतें उतनी नहीं होतीं, लेकिन बेबसी, बेरोजगारी, गरीबी और  सबकुछ रहते हुए भी भूख की विद्यमानता की मुसीबतें भी अभूतपूर्व है। अफसोस की बात तो यह है यह स्थिति आसानी से टाली जा सकती थी। पर राज्यों सरकार की आपसी खींचतान व चालबाजियाँ, अनेक राज्य सरकारों की केंद्र सरकार से खींचतान, मंत्रालयों में तालमेल की कमी (यथा रेल और बसों की व्यवस्था में समन्वय की कमी), कहीं-कहीं सरकारी अधिकारियों में भी खींचतान इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है। 1942-43 के अकाल में खाद्यान्नों की कमी नहीं थी पर वितरण की अकुशलता और विसंगति के चलते करीब 30 लाख लोग भूख व कुपोषण से  मरे थे, जैसा कि नोबल अर्थशास्त्री डॉ अमर्त्यसेन का विश्व-चर्चित अध्ययन बताता है। आज की प्रवासी मजदूरों की बदहाली के लिए भी राजनीतिक खींचतान और निर्णयहीनता ने कुशल व प्रतिबद्ध प्रशासन को बेकार साबित किया।  यह स्थिति आगे के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन हेतु सरकारों के लिए बहुत बड़ा सबक भी है।
इस खींचतान का नतीजा है कि प्रवासी मजदूरों के मामले में काफी विलंब हुआ, इनका धैर्य जवाब दे गया। इससे कोरोना संक्रमण को और बढ़ावा ही मिला है—पहले जमाती, फिर शराबी, और साथ में इन प्रवासी मजदूरों के मार्फत। जो मजदूर परिवार सहित फंसे हुए थे उन्हें भेजने में तात्कालिक प्राथमिकता देनी चाहिए थी। इससे भीड़ एकत्रण से बचा जा सकता था। ऐसी राष्ट्रीय आपदा के समय में राज्यों सरकारों के स्वयं निर्णय लेने के अधिकार को सलाह देने तक सीमित कर देना चाहिए। केंद्र सरकार उनको उचित समझे तो विचारे और माने अन्यथा नहीं। राज्यों सरकारों व स्थानीय प्रशासन को केंद्र के अनुशासन को तत्काल पालन की बाध्यता होनी चाहिए। मैंने तो 23 मार्च को ही यह बात बल देकर प्रचारित की थी। मीडिया भी अब आपसी खींचतान से हुए अनर्थ के मुद्दे पर मुखर होने लगा है।  
मंत्रालयों, विशेषकर,केंद्रीय मंत्रालयों को भावनाओं में बहने तथा भाग्यवादी व अति आशावादी मनोवृत्ति को छोड़कर जमीनी यथार्थ की युक्तिपूर्ण समझ विकसित करनी होगी। मसलन यदि इन लोगों ने समय रहते मजदूरों की विवशताओं को समझ लिया होता तो प्रवासी मजदूरों की यह दुर्दशा और इनको लेकर ऐसी अव्यवस्था से बचा जा सकता था। मार्च के दूसरे सप्ताह में होली त्योहार खत्म कर बहुतेरे मजदूर अपने गावों से बड़े शहरों में पहुंचे, दो-चार दिन की मजदूरी कमाए नहीं कि लॉकडाऊन चालू हो गया। मालिकों ने हाथ खड़े कर दिये कि कारोबार बंद हैं तो इन सबके लिए बिजली, आवास का भार कौन वहन करेगा। केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों व प्रशासन पर कुछ ज्यादा ही भरोसा किया। बहुत ऊंचा सोचने की हवा-हवाई मानसिकता जमीनी हकीकत से दूर रही।  जमीनी हकीकत से वाकिफ होना ही काफी नहीं है, देखने-सोचने की अभिमुखता भी मायने रखती है। नतीजा मजदूर परिवार अप्रत्याशित बदहाली का शिकार हो जैसे तैसे विपरीत पलायन को बाध्य हुए। भूख कोरोना पर हावी पड़ा। सरकारी तंत्र और शिष्ट समाज की तक्नोलोजी के उपयोग की समझ खोखली और बौनी साबित हुई है। अब यह दुर्दशा इनके लिए ऐसा सबक है कि इन्हें अब वापस उद्योगों में लौटने से पहले सैकड़ों बार सोचना पड़ेगा। यह तय है कि अधिकांश नहीं लौटेंगे। यह पलायनशील वर्ग युवा श्रमशक्ति का बड़ा हिस्सा है। इनको स्थानीय स्तर पर ही रोजगार और पुनर्वासन देना है।
 यह विशेष बात है कि केंद्र सरकार ने मोदीजी के नेतृत्व में लोकल को वोकल बनाने का आह्वान किया है। स्वयं को आत्म-निर्भर बनाना होगा। इन बातों को किस रूप में लिया जाय? लोकल तो पहले से ही वोकल रहा है; राजनेताओं की गाली और उनके इशारे पर पुलिस की लाठी खाकर भी वोकल रहा है। लोकल वॉयस को लंबे समय से महज राजनीतिक नज़रिये से देखने की प्रवृत्ति रही है। चाहे दक्षिणपंथी हों या वामपंथी या सतही परंपरागत समाजवादी—सभी लोकल वॉयस को विभाजनकारी, दक़ियानूसी, विकास व विज्ञान विरोधी, देशद्रोही मानकर दबाते रहे हैं, जबतक कि लोकल वॉयस को स्वीकार करना इनकी राजनीतिक मजबूरी न बन जाए। क्या माना जाय कि स्थानीय समस्याओं की राष्ट्रवाद की आड़ में उपेक्षा नहीं होगी, स्थानीय अपेक्षाओं को केवल राजनीतिक नज़रिये से नहीं देखा जाएगा? हालांकि राजनीतिक उपेक्षा के बावजूद प्रशासनिक अधिकारियों का बड़ा हिस्सा लोकल वॉयस को सपोर्ट करता रहा है। राज्य सरकारें वापस लौटे मजदूरों के रोजगार व पुनर्वासन हेतु  निश्चित ही कुछ योजनाएँ चलाएंगी। बाहर से कंपनियों और उद्यमियों को बुलाया जा रहा है। अधिकांश श्रम कानून एक हज़ार दिनों के लिए प्रभावहीन बना दिये गए हैं। मजदूरों के विद्यमान कौशल की पहिचान और कौशल पुनर्विकास की घोषणाएँ की गयी हैं। पर किसी क्षेत्र को सिर्फ सरकारी योजनाओं और नौकशाही के भरोसे न आत्म-निर्भर बनाया जा सकता है, न विकसित किया जा सकता है।
लोकल सही अर्थों में वोकल हो—यह सुनिश्चित करना होगा। यह सरकारी मदद या खैरात मात्र से संभव नहीं है। स्थानीय स्तर पर आत्मविश्वास, स्वाभिमान और सामर्थ्य उत्पन्न करना होगा।  इसी आत्मविश्वास, स्वाभिमान और सामर्थ्य को उत्पन्न करने व बढ़ाने के लिए उपेक्षित और कमजोर क्षेत्रों को पहिचान प्रदान करने हेतु भोजपुरी, बुंदेलखंड, विदर्भ, सौराष्ट्र, आदि की मांग की जाती रही है। इन बातों की उपेक्षा का नतीजा रहा है—क्षेत्रीय असंतुलन और युवा श्रमशक्ति का रोजी-रोटी के लिए पलायन।
भाषा के आधार पर 1956 के राज्यों के पुनर्गठन को निरस्त कर सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक आधार पर भारत में राज्यों का नवगठन आवश्यक है। प्रउत(प्रगतिशील उपयोग तत्व) विचारधारा के अनुसार भारत को 44 समाजों में गठित कर विकासगत नियोजन करने की आवश्यकता है। इसी को लेकर समाज आंदोलन है। अबतक देश का दुर्भाग्य रहा है कि क्षेत्रीय अपेक्षाओं को राजनीति और वोट के नज़रिये से ही देखा गया है। जहां ढेर सारी हिंसा हुई, नए राज्य उत्तराखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना गठित कर दिये गए। वोट व दबाव की राजनीति वाली यह मानसिकता व्यवस्था व अनुशासन के लिए ठीक नहीं है। लोकतन्त्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। क्या केंद्र पहले की उपरोक्त मनोवृत्ति में परिवर्तन करेगा और लोकल को वोकल बनाने की स्वघोषित  नीति के प्रति गंभीर होगा? 
स्थानीय स्तर पर उचित, प्रभावी व पर्याप्त रोजगार का सृजन रातोरात संभव तो नहीं होगा। बाहर की कंपनियों और बाज़ार छोड़कर भागने में निपुण वित्तीय संस्थागत निवेशकों (एफ आई आई) के भरोसे रहना भी तो ठीक नहीं। शुरुआत  में स्थानीय बाज़ार में श्रमिकों की आपूर्ति अधिक होने के चलते इनकी सौदेबाजी स्थिति कमजोर हो सकती है, परिश्रमिक दरें गिर सकती हैं। श्रम क़ानूनों के निष्प्रभावी रहने से इनके शोषण की प्रवृत्ति बढ़ सकती है। इसके लिए शीघ्र समाधान अपनाना होगा। गाँव व ब्लॉक स्तर पर विकेंद्रित नियोजन अपनाना होगा। निर्माण, औद्योगिक उत्पादन, कृषि उपज के उत्पादन, प्रसंस्करण व विपणन, डेरी, सेवाओं आदि में समन्वित सहकारिता के माध्यम से इन लोगों को इकाइयों के संचालन में शामिल करना एक शीघ्र प्रभावी उपाय है। केंद्र सरकार ने छोटे कारोबारों व किसानो के लिए ढेरों योजनाएँ घोषित की हैं। समन्वित सहकारिता के द्वारा इनका समुचित लाभ लिया जा सकता है। सरकारों को भी चाहिए कि समन्वित सहकारी समितियों के प्रोत्साहन हेतु तथा इनके साथ ही स्वयं सहायता समूहों को सहायता व ऋण प्रदायन में प्राथमिकता देने हेतु भी स्कीम घोषित करना चाहिए।
भारत में अनौपचारिक सहकारिता के तौर पर स्वयं सहायता समूह अच्छा कार्य किए हैं। अब इनसे आगे बढ़कर  समन्वित सहकारिता विकसित करने की जरूरत है। इसमें  राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों का प्रतिनिधित्व नहीं होगा जैसा कभी अमुल में किया गया था। सरकार इसमें तकनीकी सहायता, ऑडिट व प्रोत्साहनकारी भूमिका रखेगी। नियमों के उल्लंघन व अधिसंख्य सदस्यों द्वारा कुप्रबंध की शिकायत पर सरकार हस्तक्षेप कर सकती है। अधिकांश जोतें पहले से ही छोटी हैं। विपरीत पलायन के चलते इनपर जनभार बढ़ेगा। इनको कुशल बनाने हेतु किसान सहकारी खेती अपना सकते हैं। पर व्यवस्था देनी होगी कि किसान उत्पादन समिति का  सदस्य रहेगा पर उसका अपनी जमीन पर व्यक्तिगत मालिकाना हक बना रहेगा। समिति केवल भूमि के प्रयोग का अधिकार रखेगी।
कृषि उपज का  उद्योगों की भांति मूल्य निर्धारण करें। समन्वित सहकारिता के माध्यम से इनका विपणन, भंडारण व स्थानांतरण का उपाय करें। यह नहीं भूलना चाहिए कि डेन्मार्क, हालैण्ड, इसराइल, जर्मनी आदि यूरोप के किसानों की मानसिकता भी भारत के किसानों से ज्यादा भिन्न नहीं है। पर उन्हें जब  लगा कि कंपनियों का वर्चस्व उन्हें बर्बाद कर देगा तो उन्होंने सहकारी खेती और विपणन को उत्साह के साथ अपनाया।

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