Saturday 22 August 2020

संभालना वृहद वैश्विक युद्ध को

 

कोविड-19 के दौर में आज जो विश्व परिदृश्य उभरा है, उसमें 1980 के दशक के मध्य से चल रही तीसरे विश्व युद्ध की अटकलें अब वास्तविकता की ओर रुझान कर रही हैं । बीबीसी के पत्रकार हम्फ्री हॉक्सले ने 2003 में प्रकाशित अपने उपन्यास 'द थर्ड वर्ल्ड वॉर' में दिलचस्प विश्लेषण पेश किया है कि कैसे चीन, पाक और उत्तर कोरिया के खतरनाक कृत्यों से इस युद्ध की शुरुआत होती है जिसका परिणाम इन खतरनाक षड्यंत्रकारियों के अंत के साथ होता है। इस उपन्यास में उन्होंने गोरखपुर के एयर बेस की भी महत्वपूर्ण भूमिका का जिक्र किया है। एक अन्य लेखक अनिरुद्ध डी जोशी ने 2006 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'तृतीय विश्व युद्ध' में लेखों की एक श्रृंखला के रूप में इस युद्ध के समय का अनुमान 2026-2031 के निकट लगाया है।

भारतीय मूल के अमेरिकी अर्थशास्त्री डॉ रवि बत्रा ने संयुक्त राज्य अमेरिका में व्यापार चक्रों व मौद्रिक प्रवृत्तियों के विश्लेषण के आधार पर  अपनी प्रसिद्ध पुस्तकों 'द ग्रेट डिप्रेशन ऑफ 1990' और ' सर्वाइविंग द  ग्रेट डिप्रेशन ऑफ 1990' में इस युद्ध का समय 2029-2036 के दौरान का संकेत दिया है। लेकिन उपन्यासों में सपने या प्रवृत्तियों के विश्लेषण बिलकुल सही सटीक हों, जरूरी नहीं है । 1898 में प्रकाशित मॉर्गन रॉबर्टसन द्वारा प्रकाशित एक लघु उपन्यास 'फ्यूटिलिटी' में कल्पना के रूप में टाइटन नाम के जहाज की तबाही का सपना (और 1912 में टाइटन के मलबे के रूप में संशोधित) असली आरएमएस टाइटैनिक के डूबने के साथ अपनी समानताओं के लिए प्रसिद्ध रहा है, जो 14 साल बाद अप्रैल 2012 में उत्तरी अटलांटिक महासागर में एक ब्रिटिश यात्री लाइनर के रूप में घटित हुआ; इस घटना का उपन्यास के विवरण से कुछ अंतर तो था ही । इस तरह के विवरण इतने महत्वपूर्ण नहीं हैं क्योंकि उनकी सटीकता वास्तविक घटकों के कृत्यों से प्रभावित हो सकती है, लेकिन उनके संकेत महत्वपूर्ण हैं ।

खोएँ नहीं यह महान अवसर

आज पूरी दुनिया में  भलेमानुष लोग और उनकी सरकारें खुद को आतंकवादी और मानव विरोधी ताकतों के खिलाफ अपनी लड़ाई में भारत का सहयोग करने के लिए तैयार बैठी हैं, मुख्य रूप से चीन, पाकिस्तान और उत्तर कोरिया और यहां तक कि नेपाल की सरकारों के खतरनाक मंसूबों और गतिविधियों के कारण । यह भारत के लिए अच्छा संकेत है। भारत को इस महान अवसर को खोना नहीं चाहिए, ऐसे अवसर  बार-बार नहीं आते। हमें अपनी रक्षा और बाहरी रणनीतियों में वास्तव में आक्रामक होने की जरूरत है। प्रधानमंत्री मोदी ने 4 जुलाई को भगवान कृष्ण को याद करते हुए अपने लेह संबोधन में आह्वान किया है, ' यह विकासवादी का युग है, विस्तारवाद का नहीं ' । ऐसी मुखरता को वास्तविकता में प्रतिबिंबित कर आगे बढ़ जाना चाहिए । हमें व्यापक रणनीतिक उद्देश्यों के साथ अपनी विदेश नीति में बिल्कुल स्पष्ट और मुखर होने की जरूरत है न कि राष्ट्रीय लाभ की संकीर्ण गणना से संतुष्ट रहे।

हमारी विदेश व प्रतिरक्षा नीतियां अत्यधिक रक्षात्मकऔर फिसड्डी रही हैं । हम ताइवान के साथ राजनयिक संबंध शुरू करने की हिम्मत आजतक नहीं जुटा सके, सिर्फ चीन की नाराजगी से बचने के लिए।  लेकिन अब भारत को विश्व समुदाय को अन्तरिम सरकारों के साथ स्वतंत्र देशों के रूप में हॉन्गकॉन्ग, तिब्बत, बलूचिस्तान, पख्तूनिस्तान, दक्षिण मंगोलिया, पूर्वी तुर्किस्तान व मंचूरिया को मान्यता देने के लिए अग्रणी बन स्पष्ट समर्थन और प्रेरणा देनी चाहिए । चीन और उत्तर कोरिया के तानाशाह  शासकों को राष्ट्रीय संप्रभुता की झूठी धारणाओं के साथ उनका केवल आंतरिक मामला मानकर नहीं छोड़ा जा सकता । एक विशाल चीन पूरी दुनिया के लिए हमेशा के खतरा बना रहेगा। विज्ञान और प्रौद्योगिकी की अधकचरी समझ और इनका विरोध करने वाले सभी संकीर्ण, भाव-प्रवण और वैचारिक कट्टरपंथों पर भी यही बात लागू होती है । विश्व समुदाय को चाहिए कि ऐसी खतरनाक संकीर्ण भावनाओं को बेरहमी से कुचल दें। राष्ट्रवाद और साम्यवाद का उपयोग निरंकुश नेताओं द्वारा सत्ता पर कब्जा करने और बनाए रखने के औजार के रूप में किया गया है ।

खतरनाक डिजाइन - एक आकलन

रक्षा के लिए आक्रामक रवैया सबसे व्यवहार्य विकल्प रहा है। अपने सहयोगियों के साथ चल रहे चीनी मनोवृत्ति और डिजाइन कश्मीर, उत्तराखंड, लद्दाख, भूटान और पूरे उत्तर-पूर्व के साथ-साथ उत्तर बिहार, सिक्किम और पश्चिम बंगाल के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं। पाकिस्तान की नज़र कश्मीर पर और नेपाल की उत्तराखंड पर है। चीन ईरान, आईएसआईएस, तालिबान अफगानिस्तान, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, मलेशिया आदि को अपने खतरनाक डिजाइनों में साथ लाने की कोशिश कर रहा है। जिस तरह से यह भारत के खिलाफ नेपाल का उपयोग कर रहा है, वह बताता है कि कभी भी वह भारत में नेपाली क्षेत्र के माध्यम से घुसपैठ कर सकता है।

विभिन्न मुद्दों पर स्पष्ट रुख अपनाने और दुनिया के लोगों की समूहिक मानसिकता के साथ चलने से पाक अधिकृत कश्मीर, अक्साई चिन, अरुणांचल प्रदेश, नेपाल और भूटान के मुद्दों को अपने दम पर सुलझाने के लिए अवसर स्वतः ही पैदा होंगे। ऐसे मुद्दों को राष्ट्रवाद के जरिए इतनी आसानी से सुलझाया नहीं जा सकता। राष्ट्रवाद ने हमेशा खूनी युद्धों, त्वरित  विनाश, धीमी लेकिन पीड़ायुक्त गड़बड़ी और साम्राज्यवाद, विस्तारवाद, पराधीनता और शोषण की एक और श्रृंखला को पुनः शुरू करने हेतु आमंत्रण ही साबित हुआ है । वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में राष्ट्रवाद काम नहीं कर सकता । यह राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए प्रभावी नहीं है, बल्कि इसका अधीर, उग्र व उथला दर्शन प्रायः राष्ट्रीय हित का परिणामी विरोधी ही सिद्ध हुआ है ।

सोवियत संघ का विघटनएक भ्रम निवारण       

1987-91 के दौरान सोवियत संघ के विघटन के लिए अक्सर संयुक्त राज्य अमेरिका पर आरोप लगाया जाता रहा है । लेकिन क्या अमेरिका वास्तव में ऐसी ताकतवर महाशक्ति के खिलाफ ऐसे प्रयास में सफल हो सकता है । वास्तविकता यह है: रूसी राष्ट्रवाद और साम्यवाद का मेलजोल ही था जो नियमित रूप से और आंख बंद करके वी आई लेनिन से लेकर आगे के सभी सोवियत तानाशाहों द्वारा स्थानीय आकांक्षाओं, मुद्दों और जरूरतों को दबाने के साथ-साथ राष्ट्रीय हित के नाम पर अधिकतम जानकारी छुपाने के लिए इस्तेमाल किया गया था; और यही वह मेलजोल था जिसके कारण विनिर्माण में निहायत घटिया गुणवत्ता रही और ग्रामीण सोवियतों में उत्पादकता कम हुई—इन सब के कारण सोवियत जनता में काफी हताशा बनी। इस मुद्दे के साथ जुड़ा रूसी तानाशाहों की वोट राजनीति के तहत यूक्रेन, अज़रबैजान, आदि जैसे सोवियत परिसंघ के 16 सदस्य राज्यों को अलग राष्ट्रों के रूप में संयुक्त राष्ट्र परिषद में मतदान करने की अनुमति और नतीजा सोवियत संघ का विघटन । अगर अमेरिका ने भी अपने राज्यों के लिए इसी तरह की नीति अपनाई होती और अपने ५० राज्यों को पृथक राष्ट्रों के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ में मतदान करने की अनुमति दी होती, तो संयुक्त राज्य अमेरिका को भी बहुत पहले ही ऐसे ही विघटन का सामना करना पड़ा होता। इसलिए सोवियत संघ के साथ जो कुछ भी हुआ वह पूरी तरह से उसके अपने तानाशाहों की संकीर्ण व मूर्खतापूर्ण नीतियों के कारण था, और कोई भी ऐसा करने में सक्षम नहीं हो सकता था ।

राष्ट्रवाद और साम्यवाद के इसी तरह के मिश्रण का उपयोग लंबे समय से चीनी तानाशाहों द्वारा किया जाता रहा है और वर्तमान शी जिनपिंग शासन के दौरान फिर से अपने ही लोगों से हरसंभव जानकारी छिपाने और विश्व समुदाय को गुमराह करने की वही प्रवृत्ति है; उसी तरह की खराब गुणवत्ता; पेटेंट और मानव अधिकारों के उल्लंघन; जनता के बीच वैसी ही हताशा;  और पड़ोसी देशों को परेशान करते रहना। इसलिए चीन को अपने तानाशाहों के कृत्यों के कारण किसी भी तरह से टूटना पड़ सकता है । ये सभी कृत्य वर्तमान कोविड की वैश्विक  महामारी में परिणत हो चुके हैं और इस तरह से दुनिया भर की जनता के क्रोध को आमंत्रण मिला है । अमेरिका और उसके सहयोगियों को वैश्विक हितार्थ इस क्रोध को भुनाने का सबसे अच्छा अवसर मिला है ।

पाकिस्तान भी इसी तरह पूरी मानवता के लिए एक खतरे के रूप में उभरा है अपने धार्मिक कट्टरपंथ, इस्लामी आतंकवाद को वहाँ की सरकार और सेना द्वारा खुले समर्थन व संलिप्तता, चीन के साथ अपने मजबूत सहयोग के माध्यम से खतरनाक षड्यंत्र रचने और विश्व समुदाय को गुमराह करने जैसे कृत्यों के द्वारा। यह एक असफल विनाशकारी राज्य है, इसलिए इसे भी अब एक राष्ट्र के रूप में छिन्न-भिन्न होने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए । उत्तर कोरिया को अपने निरंकुश शासन के चंगुल से मुक्त किया जाना चाहिए और बेहतर होगा कि वह दक्षिण कोरिया के साथ विलय के लिए मजबूर हो। ये सब अब वर्तमान में चिढ़े हुए विश्व समुदाय की तत्परता को ध्यान में रखते हुए थोड़े समय में ही पूरा किया जा सकता है । शुरुआती फोकस दो सबसे गैरजिम्मेदाराना सरकारों—चीन और पाकिस्तान को निपटने-निपटाने तक सीमित रहना चाहिए । उनके साथ किसी अन्य सहानुभूतिकर्ता को भी दायरे में लाया जाना चाहिए जब आवश्यक हो । 

राष्ट्रीय संप्रभुतायें और विश्व सरकार

राष्ट्रीय संप्रभुताओं ने हमेशा संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व व्यापार संगठन, सुरक्षा परिषद, डब्ल्यूएचओ और कई अन्य तथाकथित विश्व निकायों की प्रभावकारिता को बाधित किया है ताकि इन वैश्विक संस्थाओं को  शक्तिशाली राष्ट्रों की संप्रभुता की सहूलियत और दया के के अधीन केवल संधिस्वरूप तक सीमित रखा जा सके ।  राष्ट्रीय संप्रभुताओं को विश्व सरकार के साथ-साथ विश्व समुदाय की शांति और कल्याण की उपसेवा में रखने की आवश्यकता है, अन्यथा यह हमेशा विश्व शांति और सुरक्षा के लिए खतरे पैदा करेगा जैसा कि पहले संकेत दिया गया है । इतिहास में यह भी देखा गया है कि कैसे यूरोप के शक्तिशाली राष्ट्र जैसे जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, स्पेन, पुर्तगाल, इटली आदि ने पहले अपने राष्ट्रीय संप्रभुताओं का प्रसार किया, फिर साम्राज्यवाद को बढ़ावा दिया और उसके बाद सैकड़ों वर्षों तक उपनिवेशवाद को बनाए रखा—ये सब अपने राष्ट्रीय हितों को साधिकार अभिवर्धन के नाम पर ।  20वीं सदी में अमेरिका और रूस ने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान और उसके बाद शीत युद्ध के दिनों में एक-दूसरे के सहयोगियों-समर्थकों व तटस्थों के साथ ऐसा ही किया है । अब अपने सहयोगियों के साथ चीन बेहद गैरजिम्मेदाराना और खतरनाक तरीके से ऐसा ही कर रहा है । यूएनओ जैसे विश्व संगठन अब तक इन निकायों को अप्रभावी बनाने वाले पारस्परिक विरोधाभासी और टकराव वाली राष्ट्रीय संप्रभुताओं का सम्मान करने के लिए बाध्य रहे हैं । इसलिए, भारत को भी अमेरिका और उसके सहयोगियों को विश्व समुदाय की सामूहिक मानसिकता को औपचारिक रूप से वास्तविक प्रतिनिधित्व युक्त, जिम्मेदार और उत्तरदायी विश्व सरकार बनाने के लिए राजी करना चाहिए राष्ट्रीय प्रभुताओं का अतिक्रमण करते हुए।

प्रभावी और स्थायी समाधान

अब फिर से निरंकुश और आतंकवाद की  समर्थक सरकारों के खिलाफ दुनिया भर में लोगों की नाराजगी के मुद्दे पर वापस आते है, इस बार मुख्य रूप से Covid-19 के माध्यम से । उनके गैर-जिम्मेदाराना और खतरनाक कृत्यों का एक प्रभावी और स्थायी समाधान न केवल उनके लिए एक सबक के रूप में बल्कि ऐसे सभी अन्य आत्मकेंद्रित औरस्वयंभू अतिवादी हठधर्मी और शोषक प्रवृत्तियों के लिए एक सीख के रूप में भी आवश्यक है । इस आगामी महान वैश्विक उद्यम के दौरान नुकसान को कम करने हेतु भारतीय और यूरोपीय नेताओं के लिए यह आवश्यक है कि वे सोवियत संघ  के विघटन में संयुक्त राज्य अमेरिका की भूमिका के बारे में रूस की गलतफहमियों को दूर करें और साथ ही अमेरिका को अपने स्वार्थी पूंजीवादी और छद्म पूंजीवादी प्रवृत्तियों को कम करने के लिए राजी करें ताकि पूर्वोल्लिखित तानाशाहों के खतरनाक डिजाइनों के खिलाफ अमेरिका के साथ सहयोग करने में रूस की हिचकिचाहट घट सके और ये दोनों ही दुनिया के कल्याणार्थी लोगों के साथ सहयोग कर सकें। दुनिया भर में आधिपत्य और वर्चस्व के लिए इन दो महाशक्तियों का टकराव शांति, सामूहिक कल्याण और सहयोग की वैश्विक खोज में अच्छे नहीं हैं ।

परमाणु शक्ति होना सरकार या देश के लिए आस्तित्विक गारंटी नहीं  

यदि रूसी सरकार कल्याण और शांति उन्मुख देशों के सभी अनुनय-विनय के बाद भी सहयोग नहीं करती है, तो वह अपनी ही जनता के गुस्से को आमंत्रित करेगी । किसी को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि सोवियत संघ  आज से चार गुना अधिक आणविक हथियारों के साथ सबसे बड़ा परमाणु शक्ति था जब वह 1991 में विघटित हुआ। परमाणु शक्ति होना  किसी भी सरकार या देश के लिए कोई आस्तित्विक गारंटी नहीं है—यह एक महान सबक है विशेष रूप से चीन और उसके सहयोगियों के लिए ।  आखिरकार, यह समय अपेक्षाकृत स्थायी विश्व शांति और कल्याण के लिए एक मूल्यवान अवसर है । इस अवसर का दृढ़ता और तेजी से उपयोग किया जाना चाहिए ।

प्रोफेसर आर पी सिंह,

वाणिज्य विभाग,

गोरखपुर विश्वविद्यालय

E-mail: rp_singh20@rediffmail.com

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