Friday 6 December 2019

पेशेवर-परिवारी नहीं, वैज्ञानिक राजनीति ही समाधान है


#पेशेवर-परिवारी नहीं, वैज्ञानिक राजनीति ही समाधान है#
भाग 1/8
पेशेवर व परिवारी राजनीति का अभिशाप
कुछ लोग अक्सर यह सवाल करते हैं कि डा0 भीमराव अंबेडकर, अरबिन्द घोष या टैगोर का आज़ादी की लड़ाई में प्रत्यक्ष योगदान क्या है? सुभाष चंद्र बोस सरीखे कुछ नेताओं ने तो कांग्रेसी आंदोलन से अलग रास्ता अख्तियार कर लिया था। वास्तव में  कतिपय ये बुद्धिमान नेता किसी न किसी रूप में स्वतंत्रता आंदोलन की एक कड़वी हकीकत से वाकिफ हो चुके  थे, खासकर सन 1938-39 के दौरान नौ राज्यों में कांग्रेस के बुढ़ाते मंत्रियों की लालची सुविधाभोगी प्रवृत्ति से (जिसको लेकर कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से सुभाष चंद्र बोस ने गांधी को पत्र लिखकर चिंता जताई थी)। यह कड़वी हकीकत थी कि राजे-रजवाड़ों, सामंती जमींदारों तथा धनबलियों ने वकीलों को जरिया बना आज़ादी के कांग्रेसी आंदोलन पर कब्जा कर लिया था। परिणाम तो बँटवारे, अराजकता तथा अकुशलता के रूप में ही मिलना था। अतः इस आज़ादी के बाद दुनिया का सबसे बड़ा संविधान ही नहीं बना बल्कि सबसे जटिल और सबसे ज्यादा कानून भी भारत में ही बने। जिन बातों को जापान से लेकर यूरोप तक में प्रबंधकीय-प्रशासकीय नीतियों से ठीक किया गया, उनको नियंत्रित करने के लिए हमने बड़े-बड़े कानून लाद लिये। हम भूल गए कि कानून बनाने से कुशलता, रचनाधर्मिता और प्रभावशीलता नहीं आती, बस केवल न्यूनतम अनुपालन हो पाता है। 
स्वतन्त्रता के बाद पेशेवर व परिवारी राजनीति का उभार प्रकारांतर से राजशाही का पुनर्जन्म ही साबित हुआ है।

भाग 2/8
जापानी चमत्कार से सबक
दूसरे युद्ध के दौरान जापान के आत्मसमर्पण के बाद, सम्राट हिरोहितो (और उनके परिवार) को छोड़कर अधिकांश शीर्ष नेताओं और कमांडरों को फांसी पर लटका दिया गया। अमेरिकी सरकार हिरोहितो को एक अच्छा समुद्री जीवविज्ञानी मानती थी जिन्होंने हाइड्रा की कुछ प्रजातियों की खोज की थी । इससे पहले जापानी सेना शक्तिहीन हिरोहितो को सम्राट के रूप में हाशिए पर रख सभी शक्तियों का उपभोग रही थी । कमांडर इन चीफ टोजो खुद प्रधानमंत्री था और जापानी कैबिनेट के सभी सदस्यों की नियुक्ति सेना की सिफारिशों पर की जाती थी । पर्ल हार्बर पर हमला भी सम्राट की सहमति के बिना जापानी सेना के एक गलत आकलन युक्त अति उत्साही कदम था । आत्मसमर्पण के बाद, जापान को जनरल मैकआर्थर कार्यक्रम के अधीन रखा गया था जिसकी स्वाभाविक दिशा तो  जापान को एक तरह से अमेरिका के राज्य में बदलना हो सकता था खुद की सेना विहीन। यह कदम भारत में मैकाले के कार्यक्रम के समान था।
लेकिन हिरोहितो बुद्धिमान और स्मार्ट व्यक्ति था । उन्होंने JUSE (जापानी यूनियन ऑफ साइंटिस्ट्स एंड इंजीनियर्स) बनाया—एक संगठन जिसमें सदस्य तो संस्थान ही होते हैं व्यक्ति नहीं। जापान को बदलने की प्रमुख भूमिका इसे दी गयी। JUSE उद्योग, संस्कृति, युवा और खेल के सबसे महत्वपूर्ण जापानी मंत्रालय के तहत काम करता रहा है—एक ही मंत्रालय में राष्ट्र और समाज की मुख्य ऊर्जा को शामिल करने की एक दिलचस्प और अनूठी अवधारणा । इसका काम राष्ट्रीय जीवन के लिए समाज से स्थापित क्षमता, स्वच्छ छवि और चरित्र युक्त विशेषज्ञों और नेताओं का चयन करना रहा है । इस तरह उद्योग में वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की छवि और क्षमता की स्वत: जांच व नियंत्रण होती है । इसके बाद सरकार में दागी नेताओं को वापस बुलाने (recall) का संवैधानिक प्रावधान एक पूरक अंकुश है । वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को यह वास्तविक शक्ति देकर जापान ने 30 वर्षों के भीतर विकास का वह मुकाम प्राप्त करने में सक्षम बना जो यूरोप और अमेरिका द्वारा लगभग २०० वर्षों में प्राप्त किया गया था ।
१९४५ में आत्मसमर्पण के बाद जापान ने अपने आक्रामक जापानी राष्ट्रवाद को राष्ट्रीय जीवन की रचनात्मक अवधारणा में बदल दिया। जर्मनी ने भी कुछ ऐसा ही किया। राष्ट्रीय जीवन की इस अवधारणा ने एक युद्धनष्ट देश को बहुत ही कम अवधि में सर्वश्रेष्ठ गुणवत्ता और समृद्धि के प्रतीक में बदल दिया । इसी रास्ते को शुरू में उत्तर कोरिया, ताइवान, सिंगापुर और हॉन्गकॉन्ग द्वारा अपनाया किया गया; और बाद में इंडोनेशिया, थाईलैंड, मलेशिया, आदि द्वारा।  चीन ने तकनीकी क्रांति के साथ साम्यवादी रूढ़िवाद को मिलाया है जिससे तेजी से उन्नति हुई है मुख्यत: भौतिक दायरे में सीमित। यहां तक कि अमेरिका ने भी इस अनुभव से बहुत कुछ सीखा।
जापान ने जीवन के हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा और विशेषज्ञता को महत्व दिया जिससे तेजी से उन्नति हुई जबकि हम भारतीयों ने व्यवस्था के घटिया दर्जे के बिचौलियों (ईश्वर या शक्ति या व्यापार किसी के भी) को अधिक महत्व देने की आदत को पाला हुआ है जिससे राष्ट्रीय प्रणाली कमजोर और खोखली हो गई है । पेशेवर व परिवारी राजनेता भी ऐसे ही घटिया दर्जे के बिचौलिये साबित हुए हैं जिनकी ‘थोथा चना बजे घना’ वाली  समझ के चलते अच्छी योजनाएँ भी अकुशलता का शिकार हो व्यवस्था पर भार ही साबित होती हैं। ऐसे राजनेता समाज में वैज्ञानिकों की सनकी व पागल की ही छवि ही प्रचारित करते रहे हैं। पर आज प्रौद्योगिकी क्रांति के युग में ये  राजनेता पूरी तरह से अप्रासंगिक हो व्यवस्था के भार ही हैं। वैज्ञानिक राजनीति की क्रांति ही अब सही रास्ता है।
हमें भी आक्रामक और हिंसक राष्ट्रवाद को रचनात्मक राष्ट्रीय जीवन की दृष्टि में बदलने की जरूरत है ताकि सार्थक परिणाम सुनिश्चित किया जा सके । राष्ट्रीय और राज्य जीवन, शासन और अर्थव्यवस्था के लिए नेताओं के चयन के एक प्रमुख कार्य के साथ डीएसटी (Department of Science & Technology) को भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी संघ (BUST-Bharatiya Union of Science & Technology) नामक एक संवैधानिक प्राधिकरण के रूप में व्यापक बनाने की जरूरत है । इन चयनित प्रतिभाओं का दो तरह से उपयोग किया जाएगा। जो लोग राजनीतिक चुनाव जीतते हैं, वे विधायिका और सरकारी शासन में जाएंगे जबकि शेष का उपयोग सार्वजनिक क्षेत्र की अर्थव्यवस्था और प्रशासन में किया जाएगा, इस प्रकार वास्तविक प्रतिभाओं को सम्मान, अवसर, गतिशीलता और महत्व दिया जाएगा। इस पूरी चुनाव प्रक्रिया को राज्य द्वारा वित्त पोषित करना होगा ।
BUST में सदस्य के रूप में 20 वैज्ञानिकों/शोधकर्ताओं का एक बोर्ड गठित हो सकता है—चार उच्चतम न्यायालय द्वारा नामित, चार केंद्र सरकार द्वारा, चार तकनीकी और अनुसंधान संस्थानों से, दो चिकित्सा अनुसंधान संस्थानों से, दो विश्वविद्यालयों से, दो गैर सरकारी संगठनों से और दो उद्योग से । अध्यक्ष को भारत के राष्ट्रपति मनोनीत कर सकते हैं।   

भाग 3/8
पेशेवर राजनीति की भारतीय महाभूलें—कौटिल्य  की सूझ पर पुनर्दृष्टि
भारत एशियाई टाइगरों के चमत्कारों से अनजान नहीं रहा है जैसा कि भाग 2 में बताया गया है । भारत में भी इस दिशा में कुछ प्रयास किए गए। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में मुख्यत: विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) के नेतृत्व में युवा वैज्ञानिकों और टेक्नोक्रेट्स की एक टीम का गठन किया गया और राष्ट्र को नए युग की तकनीक से चलाने के लिए संबंधित कैबिनेट समिति का गठन किया गया । लेकिन यह कार्यक्रम पूरी तरह से विफल हुआ क्योंकि कार्यक्रम में प्रतिभागियों की निष्पक्षता व सत्यनिष्ठा सुनिश्चित करने के लिए तथा धूर्त व दलाल नेताओं के हस्तक्षेप को अच्छी तरह से खत्म करने के लिए कोई उचित प्रणाली नहीं प्रदान की गयी थी।
इसका परिणाम यह हुआ कि चालाक राजनेताओं और उनके पिट्ठूओं द्वारा वैज्ञानिक युवा क्रांति के नाम पर इतनी लूट हुई कि देश 5-6 साल के भीतर दिवालिया हो गया, 1991 में रिजर्व बैंक का सोना गिरवी रखकर IMF से भारी उधार लेना पड़ा । लेकिन प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव की यह बुद्धिमत्ता थी कि उन्होंने वित्त मंत्री के रूप में अर्थविज्ञानी डॉ0 मनमोहन सिंह के माध्यम से आर्थिक उदारीकरण का सूत्रपात किया । बाद में राष्ट्र ने डॉ0 एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति के रूप में सम्मानित करते हुए  अच्छा प्रयोग किया, यद्यपि उन्हें केवल एक अवसर ही दिया गया।
लेकिन यह सब सागर में सिर्फ एक बूंद ही साबित हुआ है । पेशेवर/दलाल/परिवारवादी राजनेताओं का देश व प्रदेश की राजनीति में प्रवेश रोकने का कारगर उपाय किए और इसके बजाय ‘वैज्ञानिक राजनीति क्रांति’ को एक संपूर्ण उपाय के रूप में अपनाये बिना, राष्ट्रीय उत्थान के लिए इस ऐतिहासिक अवसर को फलीभूत नहीं किया जा सकता । कौटिल्य ने अपने पुस्तक का नाम 'राजनीतिशास्त्र'  नहीं बल्कि  'अर्थशास्त्र' रखा क्योंकि वह जानते थे कि प्रौद्योगिकी और राजनीति के मध्य अर्थशास्त्र एक अच्छा संतुलन कारक है। अब समय आ गया है कि इस वास्तविकता से हमारी आंखें न मुड़ें ।
पूंजीवाद और साम्यवाद के बारे में पहले के समय में दुनिया भर में बहस एशियाई टाइगर्स के उदय के बाद अपनी प्रासंगिकता व चमक खो चुकी है । वास्तव में दोनों ही प्रणालियां कमोबेश समान रूप से शोषक हैं, हालांकि उनके तरीके अलग हैं । पूंजीवाद में कई पूंजीपति होते हैं जो राज्य को अपने धन के प्रभाव में लाने की जुगत करते हैं, इसलिए राज्य उन्हें नियंत्रित करने की इच्छा खो देता है, हालांकि इसमें ऐसा करने की क्षमता है। लेकिन साम्यवाद में राज्य स्वयं पूंजीवादी बन जाता है—राज्य पूंजीवाद, इसे कौन नियंत्रित करेगा! अब असली चर्चा दलालों की व्यावसायिक राजनीति बनाम वैज्ञानिक राजनीति को लेकर होनी उचित है।
वैज्ञानिक राजनीति एक ऐसी प्रणाली को संदर्भित करती है जिसमें अर्थव्यवस्था और उद्योग सहित पूरे राष्ट्रीय जीवन का नेतृत्व और संचालन वैज्ञानिकों द्वारा किया जाएगा, न कि पेशेवर और दलाल राजनेताओं द्वारा । प्राकृतिक विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, अर्थव्यवस्था, प्रौद्योगिकी, संगीत, कला, साहित्य, खेल या ऐसे किसी भी क्षेत्र में योगदान करने वाले शोधकर्ता या समकक्ष कार्यकर्ता वैज्ञानिक हैं।

भाग 4/8
जातीय पहचान पर बहानेबाज़ी नहीं, सीधा हमला करें
जापान पर भारत का काफी प्रभाव रहा है-काफी सकारात्मक और कुछ नकारात्मक भी। जापान में भी कभी सामंती, चतुर्जातीय व गुलामी-अछूत व्यवस्था हुआ करती थी जिसे 1866-69 के मेइजी पुनर्स्थापन (Meiji Restoration) के एक ही झटके में समाप्त कर दिया गया बिना किसी मसीहा या अवतार का इंतजार किए। कुछ प्रभावशाली सामन्तियों ने विरोध किया तो आधुनिक मजबूत सेना ने उन्हे कुचल दिया। अमेरिका का भी दबाव इसमें निहित था। पर, जापान ने हमेशा कर्म और काबिलियत पर भरोसा किया है।
भारत में भी जातीय पहचान, जातिवाद, जातीय वर्चस्व और जातीय टकराव को खत्म करने के लिए किसी बचाने या सुधारने वाले महाविभूति के आविर्भाव का, अवतरण का इंतजार करने की आवश्यकता नहीं है। कानून और प्रोद्योगिकी ही सटीक समाधान हैं। टेक्नालाजी जाति व सम्प्रदाय भेद को नहीं मानती। पर यह पेशेवर राजनीति ही है जो अपने जातिगत वोट आधारित सत्ता लाभ हेतु जातिवाद की जड़ों में खाद-पानी डालती रही है। जातीय आरक्षण समर्थक व विरोधी दोनों ही प्रकारान्तर से जातीय पहचान का पोषण करते रहे है।
कानून व संविधान में तत्काल व्यवस्था की जा सकती है कि
a) सरकार द्वारा जातीय पहिचान सूचक उपनामों की सूची जारी हो। नाम में इन उपनामों का प्रयोग अगले दस वर्षों तक निषिद्ध व दंडनीय करार दें—हिन्दू या इस्लाम या किसी भी मजहब में। चाहें तो जातीय पहिचान सूचक उपनामों का जिन कागजातों में उल्लेख है, उन्हे पाँच वर्षों के भीतर बिना उपनाम वाले नए कागजातों से बदलवा दें। मूल अभिलेख सुरक्षित संग्रहालय में जमा करा दें। कम से कम पिछले 20 वर्षों के अभिलेख तो बदले ही जा सकते हैं।
b) हर प्रकार के आरक्षण को भी अगले दस वर्षों तक लंबित कर दें। इस अवधि के बाद सामाजिक प्रगति-परिवर्तन की समीक्षा की जाय।
c) जातीय संगठनों को पूरी कठोरता से प्रतिबंधित करें, भले ही वे जातीय या सामुदायिक सुधार के नाम पर बनी हों। उनके जिम्मेदार पदाधिकारियों का भी दमन करना होगा।
इन सबके लिए संविधान में भी बदलाव करना होगा। संविधान में आरक्षण के स्थान पर जाति-पहिचान उन्मूलन व्यवस्था को प्रतिस्थापित करें।
ऐसा करने से जाति-व्यवस्था व इसपर आधारित वोट की राजनीति की कमर भी टूटेगी। बाकी इलाज़ तेजी से वैज्ञानिक राजनीति और तकनीकी क्रांति से हो जाएगा ।

भाग 5/8
अनुरूपता और रचनात्मकता : गति और अनुशासन
एक व्यावहारिक उक्ति है:
‘अनुशासन विहीन गति घातक है, गतिहीन अनुशासन क्षोभकारी है ।’
संतुलित, सुचारू और निर्देशित विकास के लिए किसी भी समाज को अनुशासन और गति की जरूरत होती है। अनुशासन मानकों के अनुपालन से आता है जबकि गति रचनात्मकता से निकलती है । रचनात्मकता ताज़ा अंतर्दृष्टि और जीवन व समाज में बेहतर प्रौद्योगिकी, समृद्धि और गुणवत्ता के लिए अग्रणी विचारों को बढ़ावा देती है। रचनात्मकता स्वायत्तता की अपेक्षा करती है—अनुशासन की कीमत पर भी सख्ती और कठोरता से मुक्ति।
जब स्थितियां बहुत ज्यादा बिगड़ती हैं, तो लोग महसूस करने लगते हैं कि अनुशासन को बहाल करने और बनाए रखने के लिए क्यों न सैन्य शासन स्थापित किया जाय । लेकिन दुनिया के विभिन्न हिस्सों में लंबे समय से सैन्य और कम्युनिस्ट तानाशाही रही पर कहीं भी ठीक से प्रगति नहीं हुई । जापान और अन्य जगहों पर यह देखा गया है कि वैज्ञानिकों और टेक्नोक्रेट के नेतृत्व में गठित प्रणाली अत्यधिक रचनात्मक होती है । दक्षिण कोरिया, ताइवान, हॉन्गकॉन्ग, सिंगापुर आदि की वैज्ञानिक राजनीति व्यवस्थाओं को दुनिया के नेता और बुद्धिजीवी अक्सर सैन्य तानाशाही समझने की त्रुटि करते रहे हैं ।     
एक अनुशासनवादी  समाज संबंधित समूह या प्रौद्योगिकी के मानदंडों, मानकों या नियमों और यहां तक कि परंपराओं/अनुष्ठानों/रीति-रिवाजों का पालन कर सकता है चाहे वह तटस्थ या विनाशकारी दिशा में हो। लेकिन इसमें सकारात्मक व प्रगतिशील दिशा का अभाव होता है।

भाग 6/8
वैज्ञानिक राजनीति क्रांति की अपरिहार्यता
अनाड़ियों व दलालों की पेशेवर  राजनीति भारत के लिए अभिशाप रही है। यह राष्ट्र की सभी समस्याओं के दुष्चक्र की जड़ों में है । राजनीतिक दलों के नेता अपनी मूर्ख बनाने की रणनीति के हिस्से के रूप में सिर्फ लंबे वादे, बड़ी-बड़ी  बातें करते रहे हैं । शीर्ष पर एक नेता काफी ईमानदार, बेदाग या श्रमसाध्य या चौकीदार हो सकता है, लेकिन यही चरित्र  इतनी आसानी से मध्यम और निचले ओहदों तक फैलेगी, ऐसा नहीं है, बल्कि अक्सर उल्टा होता है। आजादी के बाद से विकास के लिए कई बार अच्छी पहल सरकारों द्वारा की गई लेकिन दलालों की इस पेशेवर राजनीति द्वारा स्थापित लालच व अक्षमता ने  हमेशा चीजों को खराब किया है ।
लेकिन इन्हे ठीक करने हेतु भारत को पूर्ण सैन्य तानाशाही की जरूरत नहीं है हालांकि कई बार हालात बिगड़ने और व्यवस्था विफल होने पर लोग इसका समर्थन करने की मनःस्थिति में आ जाते हैं। लंबे समय के लिए सैन्य तानाशाही भयकारी अनुशासन तो बनाए रखता है आम जनता के बीच और सेना के निचले पायदान पर भी, लेकिन यह रचनात्मकता, पहल और प्रणाली में गतिशीलता को नष्ट कर देता है । अतः उच्चतर न्यायालयों और DST/CSIR/DRDO/वैज्ञानिक-तकनीकी समुदाय के संयुक्त निर्देशन में दो से तीन वर्षों के लिए सैन्य शक्ति की सुरक्षात्मक और प्रोत्साहक भूमिका दलालों व परिवारवादियों की पेशागत राजनीति को वैज्ञानिक राजनीति द्वारा प्रतिस्थापित करने के निमित्त समर्थन किया जा सकता है ।
अराजक और भ्रष्ट पेशेवर राजनीति और भाय वा क्षोभकारी सैन्य तानाशाही की दो चरम सीमाओं से अलग वैज्ञानिक राजनीति पूरी दुनिया में संतुलित और प्रगतिशील रास्ते के रूप में उभरी है । एक बार में ही जागरूकता और परिवर्तन की आवश्यकता है । अपनी नीतिगत अक्षमताओं को छिपाने के लिए बार-बार बस ऐतिहासिक गौरव का महिमामंडन  करने या इतिहास दोहराने से बेहतर विकल्प है वैज्ञानिक राजनीति ।  पेशेवर व परिवारी राजनेताओं और राजनीति का उन्मूलन  और हर जगह विशेषज्ञता और प्रतिभा को आगे लाना एक बिना जोखिम का लाभकारी खेल रहा है ।
1947 के बाद से जापान द्वारा अपनाए गए मॉडल को आंख बंद करके कॉपी करने की आवश्यकता नहीं है। उस समय तकनीकी क्रांति शैशवावस्था अवस्था में थी। लेकिन अब तकनीकी क्रांति पूरे शबाब पर है। इसके प्रकाश में और दुनिया भर में अनुभवों को देखते हुए भाग 1 में इंगित जापानी प्रतिरूप को और अधिक औपचारिक, सुरक्षित व अचूक तरीके से लागू करने की जरूरत है। अगर हम आसानी से अन्य क्षेत्रों में जापानी प्रौद्योगिकी और गुणवत्ता को स्वीकार करते हैं, तो राजनीति में ऐसा क्यों नहीं!
BUST--वैज्ञानिकों और टेक्नोक्रेट्स का यह निकाय भी प्रौद्योगिकी के अति उत्साह, अहंकार और आक्रामकता से पीड़ित हो सकता है और उन्नति के सूक्ष्म मानवीय, सामाजिक और नैतिक पहलुओं की अनदेखी कर सकता है । इस मुद्दे का प्रबंधन करने के लिए विभिन्न क्षेत्रीय और कार्यात्मक स्तरों पर गैर-धार्मिक और गैर-सांप्रदायिक सामाजिक, पर्यावरणीय, कानूनी व शैक्षिक संस्थानों का प्रतिनिधित्व करने वाले मानद संघ को अदालतों के साथ समन्वय-निर्देशन में दबाव समूहों के रूप में काम करना चाहिए । इन संस्थानों को आगे सदविप्र बोर्ड (नैतिक विशेषज्ञों के बोर्ड) के रूप में औपचारिक रूप दिया जा सकता है। ऐसे निकायों को वैज्ञानिक आध्यात्मिकता और व्यावहारिक ज्ञान के आधार पर नैतिक सक्रियता लेनी चाहिए।

भाग 7/8
वैज्ञानिक राजनीति के लिए संवैधानिक और कानूनी सुधार

पूर्व वर्णित वैज्ञानिक राजनीति क्रांति के लिए निम्नलिखित संवैधानिक व कानूनी सुधारों की अपेक्षा है:
1) राष्ट्रीय, सरकारी और औद्योगिक जीवन में केवल BUST द्वारा नेता के रूप में चयनित वैज्ञानिकों या शोधकर्ताओं के प्रवेश  की अनुमति दें । इन वैज्ञानिकों या शोधकर्ताओं को सभी नागरिक वैज्ञानिकों या शोधकर्ताओं में से राष्ट्रीय जीवन के लिए नेताओं के रूप में उक्त संवैधानिक निकाय द्वारा चुना जाएगा जिनकी क्षमता, योगदान और अनुभव स्थापित है और भ्रष्टाचार या निम्न चरित्र के लिए दागी नहीं हैं ।
2) जातिपहचान को समाप्त करने के लिए भाग 4 में उल्लिखित कानूनी सुझावों को लागू किया जाना चाहिए।
3) किसी भी दागी पदाधिकारी, जिसके खिलाफ प्रथम दृष्टया आरोप निर्धारित हो जाते हैं, को वापस बुलाने के लिए recall का संवैधानिक प्रावधान स्थापित करें ।
संवैधानिक सुधार आमतौर पर लोकतंत्र पर निर्भर नहीं होते । बल्कि लोकतंत्र संवैधानिक सुधारों का अनुसरण करता है । मत भूलें, भारत में संविधान को 1949-50 में पहली बार आया था जबकि लोकतंत्र 1951-52 में आया था।   

भाग 8/8
वैज्ञानिक राजनीति के स्थापन के लिए क्या सैन्य समर्थन युक्त क्रांति सबसे अच्छा तरीका है?
अब असल मुद्दा यह है कि दलाल पेशेवर/भाई-भतीजावादी राजनेताओं के चंगुल से राष्ट्र को निकालने और वैज्ञानिक राजनीति क्रांति की स्थापना के इस कार्यक्रम को कैसे लागू किया जाए ! यह कार्य देखने-सोचने में जटिल, पर वास्तव में सरल है। मेरे विचार से , तीन स्पष्ट विकल्प उपलब्ध हैं:
I) इस कार्यक्रम को प्रचंड बहुमत प्राप्त वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा लागू किया जा सकता है । लेकिन, क्या इसे उचित कौशल और ईमानदारी के साथ लागू किया जा सकता है जब अधिकांश निर्वाचित नेता पेशेवर और भाई-भतीजावादी राजनेता हों । इसके लिए सरकार द्वारा बहुत उच्च राजनीतिक इच्छाशक्ति और बलिदान की भावना की आवश्यकता होगी ।
II) दूसरा रास्ता यह है कि एक नागरिक के रूप में हम भारत के राष्ट्रपति से खुली अपील कर सकते हैं कि वे देशहित में राज्य-व्यवस्था के सभी वर्गों के समर्थन की अपेक्षा के साथ राष्ट्रीय सरकार के माध्यम से इसके लिए उपाय करें । लेकिन, पेशेवर और भाई-भतीजावादी राजनेताओं के प्रतिरोध को निपटाने के लिए बहुत उच्च राजनीतिक इच्छाशक्ति का मुद्दा यहां भी उठता है ।
III) तीसरा तरीका यह है कि वैज्ञानिक समुदाय उच्चतर न्यायालयों और नैतिकतावादी संस्थाओं के समर्थन (जैसा कि पहले संकेत दिया गया है) सहित ऐसे कार्यक्रम और संवैधानिक/कानूनी परिवर्तनों के लिए 2-3 वर्षों के लिए सेना का सुरक्षात्मक और प्रोत्साहनकारी  समर्थन ले । हालांकि सेना मूल रूप से अपने नागरिकों के खिलाफ कार्रवाई के लिए नहीं हैं, लेकिन पेशेवर/भाई-भतीजावादी राजनेताओं को, चाहे वह निर्वाचित हों या नहीं, राष्ट्र और लोकतंत्र के वास्तविक शत्रु हैं, क्योंकि मुख्य रूप से वे प्रगति की धीमी और दोषपूर्ण गति, वितरण में असमानताओं, मूल्यों में ह्रास और इस देश की संकट-आयामी अक्षमता के लिए जिम्मेदार हैं । इसलिए, अगर वे इस कार्यक्रम के लिए कोई प्रत्यक्ष या छिपा प्रतिरोध डालते हैं तो उनके खिलाफ सशस्त्र बलों का उपयोग करने में संकोच करने की कोई जरूरत नहीं है । यह राष्ट्र के हित में है कि ये दलाल पेशेवर/भाई-भतीजावादी राजनेता अपनी सभी शक्तियों को वैज्ञानिक राजनीति क्रांति के लिए, स्वेच्छा से या अनिच्छा से, समर्पित कर दें ।
पहले दो उपायों के बारे में एक बुनियादी प्रश्न यह है कि क्या ऐसे पेशेवर राजनेता सुधारों को प्रभावी ढंग से काम करने देंगे, अब तक के नकारात्मक अनुभवों के आलोक में,  विशेष रूप से 1985-1991 के दौरान, जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है? यदि इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक है, तो तीसरा तरीका ही एकमात्र प्रभावी उपाय बचता है।
यह एक अच्छे बहुमत वाली सरकार पर निर्भर करता है कि वह इस ऐतिहासिक अवसर का अपने दम पर उपयोग करने के लिए पर्याप्त राजनीतिक इच्छाशक्ति विकसित करे या सैन्यीकृत समाधानों की प्रतीक्षा करे । अन्यथा, 01 दिसंबर, 2019 को एक समाचार चैनल पर यूपी के पूर्व डीजीपी श्री विक्रम सिंह की एक टिप्पणी बेकार नहीं है: राष्ट्र अब रक्त चाहता है ।
ये सुधार न केवल भारत के लिए बल्कि दुनिया में कहीं भी किसी भी लोकतंत्र के लिए प्रासंगिक हैं जो पेशेवर/भाई-भतीजावादी राजनेताओं से ग्रस्त हैं ।      यदि आप सहमत हैं तो अधिक से अधिक शेयर/अग्रेषित करें।
डा0 आर पी सिंह
प्रोफेसर, वाणिज्य विभाग,
दी द उ गोरखपुर विश्वविद्यालय,
गोरखपुर

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