Saturday 18 May 2019

//गांधी को समझना कठिन है, पर जरूरी है//


कट्टरपंथियों के बस का नहीं है कि वे महात्मा गांधी को समझ सकें। नाथूराम गोडसे देशभक्त थे या नहीं यह तो इसी बात से समझा जा सकता है कि उनके कृत्य से कांग्रेस पर कब्जा जमाये सामंतों तथा बड़े जमींदारों का काम बहुत आसान हो गया था। गांधी उनके लिए राह का रोड़ा बने हुए थे। गोली ही मारनी थी तो उसे मारना चाहिए था जिसके नेतृत्व में रजवाड़ों-सामंतों- जमींदारों की तिकड़ी देश को हड़पने का कुचक्र चल रही थी। गांधी ने तो आज़ादी के तुरंत बाद कांग्रेस को भंग कर दलविहीन लोकतन्त्र का आह्वान किया था। उन्हें इस बात का भान हो चुका था कि कांग्रेस पार्टी इस परिवारवादी और भ्रष्ट्र तिकड़ी के चंगुल में फँसकर विकास की गति को अकुशल व धीमा कर देगी। आम जन की तरक्की बेहद कठिन हो जाएगी।
जिस बात को लेकर सुभाष चन्द्र बोस ने सन 1939 में प्रांतीय सरकारों के गठन के समय जनप्रतिनिधियों के लोभी व सुविधाभोगी आचरण को लेकर गांधी को चेतावनी भरे पत्र लिखे थे उससे गांधी देर से ही सही, सहमत हो चुके थे (वास्तव में गांधी और सुभाष के मध्य वैचारिक मतभेद मुख्यतः इसी बात को लेकर थे कि  उत्साही सुभाष की अनेक बातों से गांधी तुरंत सहमत होने में असहज होने लगते थे और सुभाष को समय गवाना पसंद नहीं था।) गांधी यह भी समझ रहे थे कि अलग अलग दलों में बंटे अनुयाई/समर्थक विचारधारा की आड़ में अपने दल व नेता की गुलामी करेंगे (कोमल शब्दों में भक्त बनेंगे), न की अपनी अंतरात्मा की  आवाज पर चलेंगे। विचारधारा की बात व्यवस्था को ताज़ी और पहले से बेहतर दिशा देने के लिए की जानी थी। पर सत्तालोलुप  राजनेता अपने उन्माद, सनक, पागलपन, अतिवादी कट्टरपन तथा वैमनष्य के जरिये स्वार्थसाधन को ही विचारधारा के रूप में पेश करने लगे।  गलत, दूषित, दक़ियानूसी या अधूरी-असंतुलित विचारधारा से बेहतर है, विचारधारा हो ही नहीं। अतः गांधी ने दलविहीन लोकतन्त्र की बात की जिसमें जनप्रतिनिधि अपनी सेवा, व्यवहार व काबिलियत के आधार पर चुन के विधायिका में पहुंचेंगे, न कि पार्टी की हवा, गुलामी, पैसा और शराब की बदौलत। आज हम देख रहे हैं कि सभी दलों के राजनेता सार्वजनिक तौर पर तो राष्ट्र ही सर्वोपरि का एलान करते हैं पर वास्तविक व्यवहार में पार्टी और परिवार ही सर्वोपरि चलता है। ऐसे में गांधी का सोचना गलत तो नहीं था। इसीलिए टैगोर, सुभाष से लेकर प्रभात रंजन सरकार तक ने भी दलविहीन को ही उचित माना है।
गांधीजी को ईश्वर की भांति आलोचना से परे रखने की आवश्यकता नहीं है। वे प्रयोगवादी व्यक्ति थे, अपने जीवन को ही उन्होंने सत्य के साथ प्रयोग माना था। गलतियाँ उनसे भी हुई थीं। पर वे अच्छे मनुष्य थे। उनकी हत्या एकदम गलत थी। विभाजन के लिए गांधी को दोषी मानना या उन्हें पाकिस्तान का जनक कहना गलत है। विभाजन के लिए दोनों तरफ के वे कट्टरपंथी, हिंसा मनोवृत्ति व मनभेद बढ़ाने वाले ही असली ज़िम्मेवार थे, जो अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति में जाने-अनजाने मददगार बन रहे थे।
 गांधी की आकस्मिक हत्या  के चलते देश में लोकतन्त्र के स्वाभाविक विकास की प्रक्रिया बाधित हो गयी। देश इसी तिकड़ी में फँसकर भ्रष्टाचार और निकम्मेपन का शिकार हुआ, जिसके विरोध में गणतन्त्र के बाईस वर्ष बाद ही जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में सम्पूर्ण क्रांति का आंदोलन चलाना पड़ा। 
यह अच्छी बात है कि माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी इस मुद्दे पर कट्टरपंथ से परे समझदारी से चलते रहे हैं। वे भलीभाँति जानते हैं कि गांधी पूर्णपुरुष न होते हुए भी गुजरात ही नहीं, पूरी दुनिया के सामने भारत का गौरव हैं।
****प्रोफेसर आर पी सिंह
प्रगतिशील भोजपुरी समाज

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