Thursday 12 November 2015

हिन्दुत्व नहीं, वसुधैव कुटम्बकम का पथ

यदि विश्व के करीब ८० देश इस्लामी राष्ट्र हो सकते हैं और कुछ ऐसी ही संख्या ईसाई देशों की हो सकती है तो भारत ही क्यों चार-छ:-दस देश अगर हिंदू  राष्ट्र बन जायें तो हर्ज क्या है, ऐसी संकल्पना में कोई सैद्धांतिक त्रुटि तो नहीं लगती। ऐसी संकल्पना आज से 150-200 साल पहले शायद अपनाना आसान होता। जिस राष्ट्रवाद ने, जिस nationalism ने, मध्यकाल में यूरोप को जाति व क्षेत्र के आधार पर 400 वर्षों तक खून से लथपथ कर बहुत ही छोटे-छोटे  टुकड़ों में बाँट दिया उसकी तर्ज पर हम हिन्दू राष्ट्रवाद को लेकर आज अगर आगे बढ़ते हैं तो यह सफल होने के बजाय देश के भीतर व बाहर हावी विरोधी शक्तियों को ही अतिसावधान व मजबूत करेगा। विज्ञान व तकनीकी प्रगति ने बदलते समय के साथ मिलकर राष्ट्रवाद की धार को अब काफी कुन्द कर दिया है।
जिस ब्रिटिश, जर्मन व इतालियन राष्ट्रवाद ने उपनिवेशवाद के साथ संयुक्त होकर साम्राज्यवादी शोषण का कहर ढाते हुए सारी मानवता को पददलित किया उसी की प्रतिक्रिया में विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उद्घोषण। की ‘मानवता की कीमत पर मैं राष्ट्र भक्ति व राष्ट्रवाद को स्वीकार नहीं कर सकता ।‘ टैगोर ने भविष्य की उभरती प्रवृत्तियों का सटीक आकलन करते हुए ही विश्ववाद व ‘विश्वजनेर पायरतलेर सेई तो स्वर्गभूमि’ का आह्वान किया जो वसुधैव कुटम्बकम व मानवधर्म (भागवत धर्म ) की भारतीय संस्कृति की मूलभूत संकल्पना का ही अनुगामी है। आज तो समूचा विश्व गूगल का ग्लोबल विलेज बन चुका है ।
हिन्दू शब्द को लेकर अभी कुछ दिनों पूर्व RSS ने अपने Facebook के Notes Section में बड़ी अच्छी व्याख्या प्रस्तुत की है जो RSS के हिन्दुत्व वादी चिन्तन के मद्देनजर स्वाभाविक है और लाजिमी भी। यह सच है कि कभी देश के लिए अपना सर्वत्र न्योछावर करने वाले वीरों, विद्वानों व मनीषियों ने हिन्दू  शब्द को विदेशागत होने के बावजूद अपनाया और इनका त्याग व बलिदान ही वह ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी' लम्बे  इतिहास के थपेडों-झटकों के बावजूद । पर हिन्दू की संकल्पना भारतीय प्रायद्वीप के लोगों के भौगोलिक-सांस्कृतिक अवबोधन हेतु अपनाई  गयी थी। यह उद्देश्य तो विगत दो सहस्राब्दियों में भी पूरा नहीं हो सका। प्राचीन भारत की वसुधैव कुटुम्बकम की आक्रामक नीति को भूलने के साथ ही हिंदू  सिकुड़ता चला गया तथा वह जातिगत भेदभाव, अस्पृश्यता, वर्ण-वर्चस्व, नारी-अशिक्षा, कर्मकांड पर बल पर श्रम की उपेक्षा जैसी उन कुरीतियों में उतरता चला गया जिन्होंने हिंदू संस्कृति के वैज्ञानिक स्वरूप को दुनिया की नजरों से ओझल व मलिन कर दिया । उधर आक्रामक विदेशियों की कट्टरता ने रक्षात्मक हिन्दुत्व को अन्यों की भाँति एक परम्परा, एक रूढि़, एक मजहब में परिणत कर दिया ।
हिन्दुत्व की जो भौगोलिक-सांस्कृतिक संकल्पना विगत दो सहस्राब्दियों में अधूरी रही उसे आज के हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद के शस्त्र से प्राप्त करना चाहते हैं जो आज की परिस्थितियों में हमारे प्रयास से पहले ही दुनिया को अवरोध व प्रतिरोध के लिए तैयार कर देता है जैसा कि असहिष्णुता व आतंकवाद के मुद्दे पर देखा जा रहा है। हमारे पास वसुधैव कुटम्बकम व भागवत धर्म के अमोघ अस्त्र विद्यमान हैं । इन अस्त्रों के द्वारा हम न्यूनतम प्रतिरोध के साथ विश्वमानवता को साथ ले सकते हैं। तब राष्ट्र वाद के कुन्दधार वाले मध्यकालीन शस्त्र से काम चलाने की संकीर्ण रक्षात्मक दृष्टि बदलनी ही होगी। राष्ट्रवादी शस्त्र के उपयोग की सीमाएँ हैं। किसी क्षेत्र को दासता से मुक्त कराने, या अपने पक्ष में माहौल बनाने तक तो इसका उपयोग बनता है। वैश्वीकरण के दौर में इसका विकासगत प्रयोजन सीमित होता जा रहा है । कई बार तो राष्ट्र वाद का उपयोग क्षेत्रीय मुद्दों की उपेक्षा करने अथवा क्षेत्रीय अपेक्षाओं को दबाने हेतु किया गया है । एक राष्ट्र, एक संस्कृति, एक भाषा के नाम पर पूर्व में गठित सोवियत  रूस का ‘टकेसेर माटी, टकेसेर सोना' वाला राज्य तथा उसका पतन इस बात का उदाहरण है।
हालिया चुनाव परिणामों के माध्यम से जनता ने तो समय की दीवार पर यही सन्देश चस्पा किया है कि हिन्दुत्व के बहाने प्रतिक्रियात्मक व दकियानूसी कट्टर वाद को बढ़ावा देना नहीं चलेगा, हिन्दुत्व के बहाने सटोरियों व पूंजीवादियों के हाथों कठपुतली बनना, राष्ट्र वाद के हथियार से समाजवाद को कुचलना नहीं चलेगा । जिस तरह से दाल, तेल जैसी आवश्यक वस्तुओं के दाम अप्रत्याशित ऊँचाईयों को छूने लगे, रेलभाड़े में भारी पर छिपी वृद्धि हुई है , काले धन के स्त्रोतों को बन्द करने के बजाय पहले इसे बाहर जाने देने और फिर वापस लाकर आम आदमी का जेब भरने के फालतू वादे और कवायद आखिर यही तो साबित करते है। उग्र राष्ट्र वाद को बाजार और प्रचार का जरिया बनाते समय लोग भूल जाते हैं कि राष्ट्रीय हितों की वास्तव में ठंडी तथा कुशल बुद्धि से रक्षण करना तो प्रत्येक राष्ट्र की सफलता की पूर्व शर्त है, जो नीति व परिणाम में दिखना चाहिए। यह नारेबाजी या प्रदर्शन का विषय नहीं है । भारत ही नहीं विश्व के सभी नैतिक शक्तियों को साथ लेना होगा । उन्हें व्यवस्था के केंद्र में स्थापित करना होगा, प्रतिक्रियात्मक व दकियानूसी तत्वों को दरकिनार करना होगा। स्लोगनबाजी व शब्दों की लफ्फाजी से काम नही चलेगा, काम करना पड़ेगा, जन समस्यायों का वास्तव में समाधान करना होगा। समय ने अनेकों बार दर्शाया है कि आज जो बिहार सोच रहा है कल वही पूरा हिन्दुस्तान सोचने को बाध्य होता है।

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