पहले और दूसरे लॉकडाउन में पूरी उम्मीद थी कि भारत कोविद-19 की वैश्विक महामारी पर नियंत्रण कर लेगा। पर अब तो
अनलाकिंग के प्रथम चरण के साथ ही सरकार और सुप्रीम कोर्ट ने भी कमोबेश मान ही लिया
है कि इस महामारी का सामुदायिक फैलाव हो
चुका है और अब इससे बचना जनता की समझदारी और सावधानी पर ही निर्भर है। देश को
सीमाओं के बाहर और भीतर जैसी चुनौतियां सुरक्षा, बेकारी, भुखमरी, गरीबी आदि की मिलीं हैं इनके चलते सरकारें मानने को बाध्य
हुईं कि यह महामारी हमारे रोके नहीं रुकने वाली, अब इसके साथ ही जीना सीखना होगा।
अमेरिका और यूरोप को तो संभलने का मौका बिलकुल नहीं मिला, जबतक इस बीमारी को कुछ समझ पाते तबतक वे
इसकी चपेट में आ चुके थे। पर भारत में तो
नावेल कोरोना को दूषित सोच और निहित स्वार्थों के तहत लाया गया। भारत को संभलने के
लिए ईश्वर ने दो माह का समय दिया, पर लोकतन्त्र की चुनावी व सत्त्तानशीनी मजबूरियों में अंधी राजनीति ने सब
पर पानी फेर दिया। इस देश में 30 जनवरी को
कोविद-19 का प्रवेश हुआ जब पहला मामला सामने आया। तीन
फरवरी को संख्या तीन की हो गयी वुहान से हवाई जत्थे के लौटने के साथ ही। यह बहुत
बड़ा संकेत था। अगली चेतावनी चार मार्च को
मिली जब इटली से आए 22 लोग पॉज़िटिव निकले। पर इन सभी संकेतों को नज़रअंदाज़ किया
गया। फरवरी के दूसरे सप्ताह के आरंभ में ही अंतराष्ट्रीय उड़ानों को बिलकुल बंद कर
देना चाहिए था। यदि नेताओं, अधिकारियों, पूँजीपतियों के सगे-संबंधियों को लाने का बहुत दबाव पड़ता तो इस शर्त पर
उन्हें भारत पर आने की अनुमति दी जाती कि इस महामारी के दुनिया से समाप्ति तक ऐसे
लोगों को राष्ट्र के व्यापक हित में जोधपुर नहीं, बल्कि लक्षद्वीप
या अंडमान के किसी निर्जन द्वीप पर, इनके या इन्हें बुलाने
वालों के खर्चे पर, आइसोलेशन में रखा जाएगा। यदि ऐसा किया
जाता तो इतना तय था कि पैरासिटामाल लेकर थर्मल स्कैनिंग से बच निकलने वाले 99 प्रतिशत राष्ट्रभक्त हवाई यात्री जहां थे
वहीं पड़े रहते संकट टलने तक। उस समय चुनाव यदि इस प्रक्रिया में बाधक बनते तो
उन्हें भी बेहिचक कैंसिल कर देना था।
भारत में इस देश हितवादी नीति का यदि अधिक विरोध होता, उनके द्वारा जिनकी आवाज़ें पैसे और पावर के
बूते बहुत ऊंची रहती हैं, तो बिना संकोच, अविलंब राष्ट्रीय आपातकाल लागू कर देना चाहिए था,
इस महामारी के दुनिया से समाप्ति तक। तत्काल राष्ट्रीय आपातकाल लागू करने की बात
तो उस समय कई बार उठायी गयी थी, पर सत्तासीनों व इनके कचरे
सलाहकारों ने अनसुनी कर व्यवस्था को बुरी तरह फंसा दिया। यदि ऐसा किया गया होता तब
न जमातियों की नौबत आती, न बेवड़ों का तमाशा, न प्रवासी मजदूर परिवारों का दुर्दशापूर्ण-पलायन, न
लॉकडाउन; न महामारी का सामुदायिक प्रसार और न ही आमजन के साथ
कोरोना योद्धाओं के जीवन पर संकट आता। भारत गहराती मंदी से भी साफ बच सकता था, गरीबी और बेकारी के इस नए संकट से बचा जा सकता था और सीमाओं पर चुनौतियाँ देने की
हिमाकत पड़ोसी न कर पाते। पर चंद लोगों की नाराजगी से बचने के लिए समय पर सही कदम
नहीं उठाया गया। उस समय यदि राष्ट्रीय आपातकाल लागू करते तो निश्चित ही पेशेवर
विरोधी इसे ‘कोरोना के नाम पर लोकतन्त्र का गला घोटने’ की संज्ञा देते। पर नेतृत्व को ऐसी खोखली आलोचनाओं की परवाह बिलकुल नहीं
करनी चाहिए।
27 जनवरी को नेपाल में नॉवेल कोरोना प्रवेश के एक खबर के भारत
में प्रकाशित होने के साथ ही सभी बच्चों-बूढ़ों में इसे रोकने की जागरूकता आ चुकी थी।
फरवरी के दूसरे सप्ताह में स्नातक के एक क्लास में पढ़ते वक्त दो छात्र आपस में अचानक
कोरोना पर बात करने लगे। इसपर मैंने उन्हें यह कहते हुए टोका कि ‘कोरोना तो दुनिया भर की समस्या है, लेकिन यहाँ दूसरा टॉपिक चल रहा है इसकी ओर ध्यान दें’। इसपर एक छात्र ने कहा, ‘सर, अब तो यह देश में भी आ गया है, जिंदा रहेंगे तभी तो पढ़ेंगे।
पर, उस समय नेता
लोगों का सारा ध्यान तो फरवरी के दूसरे सप्ताह में आसन्न विधानसभा चुनावों में लगा
हुआ था। आज का केंद्रीय नेतृत्व राज्यस्तरीय चुनावों को देशहित से ऊपर रखकर इन्हें
जरूरत से ज्यादा महिमामंडित करने तथा इनमें सर खपाने की प्रवृत्ति पाले बैठा है। दिन-रात
उठते-बैठते राष्ट्रवाद और भारत माता की रट लगाने वाले अतिउत्साही भक्त इस देश पर
आसन्न सबसे बड़े संकट को ऐन मौके पर पूरी तरह छिपी मजबूरियों के तहत नज़रअंदाज़ कर गए।
खैर, जैसी नीयत वैसी बरकत, जैसी भावना
वैसी सिद्धि। पाँच राज्यों में चुनाव
परिणाम मन-माफिक नहीं आए, मन खिन्न हुआ, केंद्र ऐसा उलझा कि मार्च के तीसरे माह में जाकर कहीं चुनाव और परिणाम का
खुमार उतरा, पर काफी देर कर चुके थे,
अब तो कर्फ़्यू और लॉकडाउन ही आखिरी रास्ता बचा था।
अब जो चूक हो चुकी उसको विचार में लाने से कोई लाभ है क्या? हाँ, बहुत आवश्यक है, असलियत को समझने के लिए, आगे के लिए बहुत से सबक निहित
हैं इसमें। आज जो स्थिति उत्पन्न हुई है वह वैश्विक स्थितियों की घटिया समझ,राजनीति की गलत प्राथमिकताएं, बन्तु चाटुकार विशेषज्ञों
की निकृष्ट सोच व निहायत गलत नीतियों का नतीजा है। उदाहरण के लिए, चीन द्वारा भारत के साथ उत्पन्न किए गए सीमा-विवाद पर ट्रम्प प्रशासन के
प्रस्ताव को बहुत जल्दबाज़ी में साफ मना कर दिया गया। जबकि भारत के लिए यह एक बड़ा
अवसर था चीन की कलई खोलने का। मान लीजिये भारत इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता और
चीन नहीं स्वीकारता तो अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में संदेश जाता कि चीन सुलह-शांति का इच्छुक है ही नहीं। पाकिस्तान के
मामले में मध्यस्थता का ट्रम्प प्रस्ताव इससे बिलकुल भिन्न व अनावश्यक था।
मीडिया की भूमिका कई मामलों में गुमराह करने वाली है।
कोरोना पर कुछ प्रेस मीडिया, सोशल
मीडिया व अनेक चिकित्सक दावा कर रहे हैं कि भारत में आते-आते कोरोना कमजोर पड़ चुका
है और दुनिया में कोविद 19 से मृत्यु दर सात प्रतिशत की अपेक्षा भारत में महज 2.5
प्रतिशत ही है। यह पूरी तरह गलत आकलन है। भारत में कोरोना पॉज़िटिव की दूनी होने की
अवधि अभी 16 दिन चल रही है। इस लिहाज से सही मृत्यु दर 16 दिन पहले के कोरोना
पॉज़िटिव मरीजों के प्रतिशत के रूप में भारत में भी कमोबेश सात प्रतिशत ही ठहरती
है। अतः इसे हल्के में लेना ठीक नहीं है।
वर्तमान नेतृत्व और भक्तों की कठिनाई यह है कि राजनीतिक व
व्यवसायिक मामलों में तो इनकी बुद्धि
अनावश्यक जटिलता के साथ बहुत महीन तरीके से चलती है। पर राष्ट्रहित की बात सामने
आते ही इनका सतही राष्ट्रवादी दिमाग अचानक गरम हो उठता है, नेहरू से लेकर आजतक के विपक्ष की चूकें इनकी स्मृति पर इस कदर हावी हो जाती हैं कि इनका
रचनात्मक विवेक बिगड़ जाता है और कम से कम
नॉवेल कोरोना के मामले में तो समय पर चूक ही गए, नोट और वोट
की राजनीति से ऊपर नहीं उठ पाये, राष्ट्रहित की वास्तव में पूरी
तरह अनदेखी कर गए। छद्म पूंजीवाद व पिट्ठू पूंजीवाद की मजबूरियों ने देश को फँसाने
में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है। विपक्ष की हर आलोचना पर बिदकने और उलझने की
अपरिपक्क्वता देशहित साधन में घातक साबित हुई है। शीर्ष नेतृत्व के लोग अध्यात्म, योग, धर्म, संस्कृति और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की बातें तो खूब करते है, वोट के राजनीति-व्यापार में यह लाभकारी भी साबित हुआ है, पर इस शीर्ष नेतृत्व में इन बातों पर, खासकर परमतत्व के गहन-गंभीर ध्यान-साधन का घोर अभाव है, उन्हें योग व अध्यात्म के सही कौशल की आवश्यकता है ताकि वे सही समय पर सम्यक
बुद्धि से निर्णय ले सकें।
आर्थिक नीतियों में ‘मेक
इन इंडिया’ तकनीकी हस्तान्तरण हेतु अल्पसमय के लिए ही उपयोग के लायक है। दीर्घकाल
में तो यह पूंजीवाद को व्यवस्था पर थोपने व ‘सुख के साथी’ बाहरी कंपनियों के अवसरवाद का ही उपाय है। अतः टिकाऊ रास्ता तो ‘मेड इन इंडिया’ ही है। स्थानीय अर्थव्यवस्था को
उबारना अब तात्कालिक बाध्यता बन चुकी है। मेरा सुझाव है कि तात्कालिक तौर पर श्रम-गहन
तकनीकों, परियोजनाओं
व गतिविधियों को प्राथमिकता दें। दीर्घकाल में पूंजी गहन तकनीकों का मध्यम आकार के उद्यमों में समन्वित सहकारिता
के माध्यम से तथा बड़े उद्यमों व परियोजनाओं को सार्वजनिक व सरकारी नियंत्रण में चलाया
जाना चाहिए। स्थानीय साधनों का अल्पकाल में ही तेजी से उपयोग सुनिश्चित हो सके, इसके लिए राजनीतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक स्थानीय आवाज़ व पहिचान को तत्काल कार्यरूप
में लाते हुए प्रदेशों व योजनाओं का पुनर्गठन किया जाना चाहिए। ‘मेक इन इंडिया’ को
कम से कम 51 प्रतिशत के सरकारी/सार्वजनिक नियंत्रण में चलाया जाना ही उचित है।
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