BECA समझौते के साथ ही भारत-अमेरिका के सैन्य-सूचना के तकनीकी सहयोग का चौथा चरण पूरा हो गया। पर समाज व राष्ट्र निर्माण का कार्य अधूरा है और सही ट्रैक पर लाया जाना बाकी है।
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा, हमारी जन्मभूमि स्वर्ग से भी अधिक अच्छी है, ऐसी धारणा सच हो तो भी ऐसी आत्ममुग्धता, ऐसा गर्व, ऐसा अहंकार प्रगति के मार्ग में बाधक बन आत्मघाती ही साबित हुई है। ऐसी धारणाएं सतही तौर पर बहुत अच्छी, राष्ट्र भक्ति से ओत-प्रोत लगती हैं। पर वास्तव में यह विकासपरक और स्पर्धात्मक नहीं बल्कि भाग्यवादी, भोगवादी व अवनतिकारी रही है। यह दृष्टिकोण ही अवसरवादी धारणा है जो अकर्मण्यता, शिथिलता व कूप-मण्डूकता को प्रोत्साहित करती रही है। यही मनोवृत्ति भारतीय उपमहाद्वीप की सदियों की गुलामी और आज की अकुशलता, टकराव व भ्रष्ट मनोवृत्ति के लिए जिम्मेदार है। फिर क्षेत्रीय और राष्ट्रीय विकास पर कितने भी सेमिनार-सम्मेलन कर लीजिए, तकनीकी प्रयास कर लीजिए, सब सब ढाक के वही तीन पात।
हिटलर ने भी ऐसी ही अहंकारी आर्यवादी धारणा का पोषण कर विनाश को आमंत्रित किया था। पर द्वतीय विश्व युद्ध में काफी विनाश के बाद जर्मनी ने अपनी धारणा बदली। ऐसी अहंकारी धारणा चीन ही नहीं, रूस और अमेरिका जैसों की उन्नति को मटियामेट करने की क्षमता रखती है।
*सही दृष्टिकोण* है: _हम जिस जैवक्षेत्र में, जिस देश में,जिस समाज में रह रहे हैं, जीविकोपार्जन कर रहे हैं उसे दुनिया में सबसे अच्छा बनाना है, उस औरों से बेहतर बनाने के हर प्रयास करते जाना है।_ यही नजरिया है जिसने अमेरिका, जापान, इजरायल, डेनमार्क, इटली, हालैण्ड समेत कभी मध्यकाल में बात-बात पर लड़ने वाले समूचे यूरोप में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का निर्माण कर इन्हें समृद्धि और खुशहाली के शिखर पर पहुंचाया।
प्रोफेसर आर पी सिंह
दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय